उजडा़ चमन
उजड़ गया इस बरसात में मेरा चमन,
कोई छीन ले गया मेरा चैन ओ अमन ।
घनघोर घटाओं ने आसमान को घेरा,
फट गये बादल छाया चहुं ओर अंधेरा ।
पौ फटने से पहले ही ,
नदी नालों में सैलाब उमड़ आया,
घर गृहस्ती धरी रह गयी,
मुश्किल से जान बचा पाया ।
जिधर देखो उधर सैलाब नजर आता है,
बाढ़ रूपी काल नजर आता है ।
टूटे पुल और बहती लाशें दिखाई पड़ती है,
चहुं ओर भीषण हाहाकार सुनाई पड़ती है ।
बाढ़ का पानी कम होते ही,
सब दौडे़ घर की ओर ।
सड़ गया दाना पानी,
कीचड़ फैला चारों ओर ।
उजड़ गया आसियाना,
अब रहा न ठौर ठिकाना ।
घर गृहस्ती सब बह गयी,
रहा न अन्न का दाना ।
छाती पीट-पीट कर रो रहा इंसान,
भूखे पेट पुकारते,
ये क्या हुआ भगवान ?
सहसा कुदरत ने ये कैसा कहर ढाया,
शायद हमारी गलतियों का,
हमें सबक सिखाया ।
नदी नालों को पाटकर,
हमने नगर बसाया,
मोडे़ नदियों के रास्ते ,
उन पर बांध बनाया ।
अपनी भूलों को भूलकर,
कोस रहे भगवान को ।
अब भी समय है संभल जा मानव,
फिर न बचेगा कोई रोने को ।
डां. अखिलेश बघेल
दतिया (म.प्र.)