इस मोड़ पर
अब, किसी भी दिन,
भले ही ,
भांय,भांय करता,
हो
बच्चों
के बगैर सूना घर।
मगर,
हौले- हौले,
एक ,
शांतचित्त
को,
आदत,हो
ही गई है,
उस सूनेपन में,
जी लेने की।
यंत्रवत,
चलती,
उसकी दिनचर्या,
अब,
कभी नहीं
लौटना चाहती ।
किलकारी,धमाल,
उधम, रेलमपेल के,
उत्सव में।
टंगे रह गये है,
शरारती मुखौटे,
रंगीन कागज दबे है ,
गद्दे के नीचे।
अब,एक,
बेआवाज मन,
सुनना नहीं चाहता,
झगडे के बाद,
बचचो की दलीलें,
अब ,
उसको ,
सुनते रहना ,
अचछा लगता,है,
घडी की टिक टिक का,
सुर ।
और,
उसका मन रमा है,
परदो से होकर ,
आती जाती हवा के
संगीत में