इस दफ़ा मैं न उफ़्फ़ करूंगा।
इस दफ़ा मैं न उफ़्फ़ करूंगा।
चुपके से अपना रोना रो लूंगा।।
तुम अपना समय लो, मैं हूँ यहाँ।
पर अब ना किसी से, मैं अपने अंतर्पट खोलूंगा।।
उस वक्त भी ना मैं जीवित था।
और आज में भी कुछ नया नहीं।।
बर्दाश्त-ए-बाहर, अंधेरा बस बढ़ते जा रहा है।
ऐसा नहीं, मैं उजाले में गया नहीं।।
करुणा भयावह हो सकती है।
मोह की ग्लानि ज्यों सजी है।।
आतुरता की श्रेणी अंतिम।
धुंधलापन और छाया है मातम।।
कंचन करूण, कपिला, क्रंदन।
मन ने मथा है, ये कैसा मंथन।।
रात पर प्रश्न यह आता है अब।
न होगी भोर, न होंगे उत्सव।।
अंतिम यात्रा, कल आएगी जब।
कौवे, पक्षी, मानव औ’ कलरव।।
बस है उस सुखद पल की प्रतीक्षा।
औ’ ‘कीर्ति’ की अब खत्म हुई उपेक्षा।।