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4 Jul 2021 · 1 min read

इज्जत

इज्जत सरे बाजार नीलाम होती
वो दुकान शायद मुझमें ही है

साँझ पक्षी वापस घर लौटते है
वो घोसला शायद मुझमें ही है

सावन के मास सूने सूने से होते
वो झूले शायद मुझमे ही है

हर कदम पर कमीनापन दिखता
वो इन्साफ शायद मुझमे ही है

राजनीति गलियारा गन्दा दिखता
वो सफेदा शायद मुझमें ही है

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