इक मेरे रहने से क्या होता है
इक मेरे रहने से क्या होता है
तेरे बिन खाली मकां होता है ।
जो कह न सके हिम्मत से सच
मेरी नजर में वो बेजुबां होता है ।
जंग है जुर्म के वहशी दरिंदो से
देखें साथ में कौन खड़ा होता है ।
परिंदों का पता सुबह पूछती है
मेरे होठों पे ताला पड़ा होता है।
सुना है शहर भी कभी गांव था
अब जिक्र नही उसका होता है।
तुम गए मेरा “मैं” भी चला गया
जीने का नही हौसला होता है ।
दीवार के पार फूल भी खिले हैं
नफ़रत-ए-नजर का पर्दा होता है॥
-देवेंद्र प्रताप वर्मा ‘विनीत’