इक्कीसवीं सदी के सपने… / MUSAFIR BAITHA
मैंने 21 सदी के आगाज़ वर्ष, सन 2000 में छात्रोपयोगी हिंदी पत्रिका ‘प्रतियोगिता दर्पण’ द्वारा आयोजित ‘इक्कीसवीं सदी के सपने’ शीर्षक एक निबंध प्रतियोगिता में भाग लिया था और प्रथम पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया था।
अभी 21 वीं सदी के 100 सालों में से प्रथम 22 साल बीत चुके हैं। यानी, सपाट गणितीय आकलन प्रस्तुत करें तो आज 21वीं सदी का 20% अथवा पाँचवाँ हिस्सा बीत चुका है।
मैंने अपने उस पुरस्कृत आलेख में जो वर्तमान की धूप-छांव प्रस्तुत की थी और 21वीं सदी के सपने देखे थे, धूप को रीतते और छाँव को गहराते जाने के सपने डाले थे वे इक्कसवीं सदी के इन बीते बीस सालों में बिल्कुल आशानुकूल नहीं रहे हैं बल्कि धूप की सघनता और कड़वाहट बढ़ती ही मिली है।
रीतने के बिल्कुल कगार पर आ खड़ा हुआ, अंतिम दिन में आ पहुँचा यह वर्ष 2020 भी कोई उम्मीद नहीं दे रहा बल्कि समाज में सहज, सम्मानजनक, कर्तव्य एवं अधिकारपूर्ण लोकतांत्रिक जीवन जीने की स्थितियां अभिभावक (शासन तंत्र) द्वारा ही दुष्कर बनाई जा रही हैं।
उम्मीदें कुछ भी नहीं हैं, अंधेरा घना है। एक सजग-सफ़ल-समर्थक नागरिक होने, नागरिक जीवन जीने में बाधक स्थितियों के घटाटोप के मूल में शासन-सत्ता ही है। वे अपने नागरिकों के प्रति अपने कर्तव्य नहीं निभा रहे और अधिकार नहीं ले रहे।
हम उम्मीद करें कि हमारा देश, हमारा समाज निरंतर बेहतर बने, अच्छाइयों से समृद्ध हो; हम व्यक्तिगत, सांगठनिक, सामूहिक रूप से एक संवेदनशील एवं मानवाधिकारपूर्ण समाज के निर्माण में अपना योगदान दें।