आज़ाद गज़ल 2021
आज़ाद गज़ल संग्रह
***
मेरी बात
किसी भी तारीफ के तलबगार हम नहीं है
भई!उच्चकोटि के साहित्यकार हम नहीं है।
हाँ! लिखता हूँ लाचारी का ओढ़के लबादा
साहित्य में संक्रमण के शिकार हम नहीं है ।
मुझको भला महफ़िलों की क्या है ज़रूरत
किसी दावते सुखन के हक़दार हम नहीं हैं।
हाथ फैलानेवालों के साथ कोई वास्ता नहीं
शुक्र है खुदा का यारों बेरोजगार हम नहीं हैं ।
अबे किस घमंड में जी रहा तू अजय, बता
अब ये मत कहना की गुनाहगार हम नहीं हैं।
-अजय प्रसाद
किसने कहा तू मुझे हर हाल में मंजूर है
मैं महफ़ूज हूँ जब तलक तू मुझसे दूर है।
मेरा अलग नज़रिया है ज़िंदगी जीने का
मुझे नहीं कबूल वो जो जहाँ का दस्तूर है ।
होगा औरों को मुहब्बत पे भरोसा मगर
मेरे खयाल से बस जवानी का फ़ितूर है ।
जिसे मिली शोहरत उसको मुबारक हो
मेरे लिए तो जैसे अभी भी खट्टे अंगूर है ।
क्यों खामखा मायुसी में मशगूल है अजय
तेरी कोशिशों को भी कामयाबी जरूर है।
-अजय प्रसाद
मेरे लिए भी कभी ख्वाब देख लिया करो
सपनों में ही सही मेरा साथ दिया करो ।
बस यूँही बैठे-बैठे देखते-देखते गुजरे शाम
ज़रूरी नहीं है कि हाथों में हाथ दिया करो ।
तुम्हें चांद कहना भी तो,होगा गुनाह मेरा
लोग कहेंगे कि औकात भी देख लिया करो।
खुशियों ने खामोशी को खूबसूरत बना दिया
खुद को भी मुसकुराते हुए देख लिया करो।
तोहमत अजय पर लगाना मगर पहले ज़रा
अपने गिरेवान में भी तो झांक लिया करो
-अजय प्रसाद
शक़ मेरा यकीन में बदल गया
जाहिल जब ज़हीन में ढल गया ।
आ ही गई जनता वश में आखिर
जादू सियासत का जो चल गया।
कमाल है ये रुतवा-ए-शोहरत का
खोटा सिक्का भी आज चल गया।
कौन सोंचता है जाकर बुलंदी पे
किन राहों पे वो किसे कुचल गया ।
फायदा क्या है अजय पछताने का
मौका ही जब हाथ से निकल गया।
-अजय प्रसाद
तोह्फ़े,तमगे,पैसे और पुरस्कार तू रख
मेरे हिस्से में बस लोगों का प्यार तू रख ।
इज़्ज़त,दौलत , शोहरत मेरे यार तू रख
बस उन आंखोँ में मेरा इन्तज़ार तू रख।
जा हो जा मक़बूल,कर ले हासिल मक़ाम
मगर मुझ पर रहम परवरदिगार तू रख।
भले न हो तेरी मुझ को कभी ज़रूरत
कम से कम मुझ पर इख्तियार तू रख ।
औकात अजय अपनी जानता है खूब
पाल के भरम कोई चाहे हज़ार तू रख
-अजय प्रसाद
**
शायरी मेरा शौक है पेशा नहीं
आमदनी इसमे एक पैसा नहीं ।
अब न दौर है मीरो-गालिब का
और मैं भी हूँ उनके जैसा नहीं ।
कैसें बजाऊँ बीन उसके आगे
नागिन है वो,कोई भैंसा नहीं।
चल हट परे,मेरे पहलू से अब
इश्क़,लैला या मजनू जैसा नहीं ।
मायुस हो गए नतीजों से मियाँ
क्या ज्म्हुरियत पे भरोसा नहीं।
-अजय प्रसाद
क्या बताएं कि क्या है गज़ल
शायरी की शमा है गज़ल ।
आशिकों की रज़ा है गज़ल
शायरों की सदा है गज़ल ।
मीर,मोमिन, ज़फर ही नहीं
मिर्ज़ा ,हसरत, निदा है गज़ल ।
कैफी, इक़बाल दुष्यंत के
दिल से निकली दुआ है गज़ल ।
आशिकी की ज़ुबाँ गर है ये
हुस्न की भी अदा है गज़ल ।
प्रेमिका के लिए आसरा
प्रेमी की माशुका है गज़ल ।
टूटे दिल की है उम्मीद भी
दर्दे दिल की जफ़ा है गज़ल ।
है अजय तेरे वश की नहीं
तेरे खातिर बला है गज़ल
-अजय प्रसाद
गजल मुझसे मेरी कलम मांगती है
शायरी मेरी सब रंज़ोगम माँगती है ।
तुम कह रहे हो भूल जाऊँ मैं तुम्हें
तन्हाई तेरी यादें ,ए सनम मांगती है ।
सफर में तो हूँ मंजिल मिले ना मिले
राहें मेरी मुझ से कदम मांगती है ।
संवर तो जाएं शामे मेरी भी यारों
वक्त उनसे ज़रा नजरें करम मांगती है ।
खुश रहना चाहता हूँ गर मै जीवन में
जिंदगी जीने का कोई भरम मांगती हैं ।
-अजय प्रसाद
लिजिए मिलिये हमारे पड़ोसी से,रहते हैं बगल मे
रोज़ हम मिलतें रहते है सोशल मीडिया पटल पे।
वहीं दुआ सलाम कर लेते हैं बड़ी घनिष्टता के साथ
हम वक्त जाया नहीं करतें कभी साथ-साथ टहल के
जब हर मौके के लिए मोबाईल में है इमोजी मौजुद
तो क्यों तकलीफ दें हम एक दूसरे को गले मिल के ।
होली,दिवाली,ईद,बकरीद,क्रिसमस हो या बैसाखी
जब है तकनीकि बधाई तो भला क्यों काम लें दिल से।
तुम तो अजय जैसे बहुत बड़े समाजवादी ठेकेदार हो
जाओ जाके संभालो दुकां अपनी बकवास गज़ल के
-अजय प्रसाद
मुझमें तू हिन्दुस्तान देख
हूँ कितना परेशान देख।
हैं योजनाएँ तो कई मगर
अब तक हूँ अंजान देख ।
तीन ज़रूरतें हैं मेरी बस
रोटी ,कपड़ा,मकान देख।
हस्ती मेरी समझ न पाया
हूँ मैं कैसा नादान देख।
छ्ला गया हर दौर में मैं
हुआ किसे नूकसान देख ।
तू भी अजय करेगा क्या
जाके अपनी दुकान देख।
-अजय
किस गधे ने कहा कि सिकंदर महान था
अरे वो तो अपनी औकात से अंजान था ।
इल्म ही कहाँ थी उसे अपनी हैसियत की
वो तो अपनी हश्र-ए-हस्ती से अज्ञान था ।
जीतना चाहता जिस दुनिया को ज़ुल्म से
क्या ‘दुनिया है सराए फ़ानी’से नादान था ।
गर उसने गौर किया होता अपने पूर्वजों पे
समझता वो भी चार दिनों का मेहमान था।
क्यूँ छोड़ दिया दामन उसने इंसानियत का
इतिहासकार कहतें हैं ,बेहद बुद्धिमान था ।
तुम क्यूँ अजय लगे गड़े मुर्दे उखाड़ने आज
भूल गया होगा कि वो भी एक इन्सान था
-अजय प्रसाद
साहित्य की दीवार में सेंध लगा रहा हूँ
जबरन अपने लिए मैं जगह बना रहा हूँ ।
बड़े अकड़ थे सम्पादकों के यारों पहले
आजकल मैं उनको ठेंगा दिखा रहा हूँ ।
भला हो जमाना-ए- सोशल मीडिया का
खुद अपनी गज़लें पोस्ट कर पा रहा हूँ ।
फ़ेसबुक,ई-पत्रिकाएं,कई बड़े समूहों में
अब तो लाइव मुशायरों में भी आ रहा हूँ ।
नहीं लगता अजय तुम्हे ये कहना होगा
अपने को ही मुँह मियाँ मिट्ठू बना रहा हूँ ।
-अजय प्रसाद
हर काम हो तुम्हारे हिसाब से क्यों
हो खफा हमारे इन्क़लाब से क्यों ।
जब है हालात तुम्हारे काबू में फ़िर
डर गये सवालों के सैलाब से क्यों ।
अब किस पे तुम लगाओगे इल्जाम
हो गये खिलाफ़ फ़िर जवाब से क्यों ।
चलो ठिक है,कोई हैसियत नहीं मेरी
जलते हो भला मेरे खिताब से क्यों ।
चुप भी रहो अजय तुम्हें क्या पड़ी है
वक्त बेवक्त हो जाते हो बेताब से क्यों।
-अजय प्रसाद
तसव्वुर में भी तेरी मुझे मत बुलाना
भूलकर भी कभी खवाबों मत आना ।
ठेका लिया नहीं मैनें नखरे उठाने का
ये नज़ाकत किसी और को दिखाना ।
भूत जो सर पे सवार था तेरे इश्क़ का
अब तो उतरे भी हो गया है जमाना ।
बेवफ़ा कहना भी तौहीन है मेरे लिए
काफ़ी है तुझे मेरी नजरों से गिराना ।
चल किसी और को अब बना उल्लु
तजुर्बों ने अजय को कर दिया सयाना
-अजय प्रसाद
अबे तू क्या और भला तेरी औकात क्या
कोई सुनता भी है यहाँ पर तेरी बात क्या ।
माखौल उड़ाते हैं तेरी बकवास गज़लों पे
बता न,शायरी में है तेरी कोई बिसात क्या ।
बड़ा आया हरएक मौज़ू पर लिखने वाला
सब को, मसलों से मिल गई निजात क्या ।
बजते रहतें हो मियाँ ढ़पोरशंख की तरह
बेमक़सद ही मिली है तुम्हें ये हयात क्या।
किस गफ़लत में जी रहे हो अजय तुम भी
रत्तीभर भी बदल सकते हो यूँ हालात क्या।
-अजय प्रसाद
साल बदलता है सूरते हाल कहाँ
उम्र गुजरने का भी मलाल कहाँ।
एक अरसा हो गया खुद से मिले
रखता हूँ मैं अपना खयाल कहाँ ।
हाँ जश्न मनाओ तुम नए साल का
मैं कहाँ और अब ये बवाल कहाँ ।
घर,दफ़तर बीवी औ बच्चों से परे
माज़ी,मुस्तकबिल औ हाल कहाँ ।
कभी थे हम भी क्राँतिकारी नौजवाँ
अजय में अब रहा वो उबाल कहाँ
-अजय प्रसाद ,
शायरी में सराबोर मत हो
खामोशी और शोर मत हो ।
कोई तवज्जो देगा ही नहीं
जंगल का तू मोर मत हो ।
और कुछ भी बन जा यहाँ
बस यूं आखरी छोर मत हो ।
लूट लेंगे बच्चें बे-मक़सद
कटे पतंग की डोर मत हो।
बेहद मायुसी भी ठीक नहीं
ज़िंदगी से यूं बोर मत हो ।
-अजय प्रसाद
ज़ेहन को भी ज़रा जहमत दे
इमां को मौका-ए -खिदमत दे।
ज़िंदगी यूँ जहालत में न गुजरे
या खुदा थोड़ी सी तो रहमत दे।
घिस रही उम्र रोज़ यूहीं बेवजह
इन गाफिलों को तू हिकमत दे।
है मुश्किलें तय मुस्तकबिल में
उनसे जूझने लायक हिम्मत दे।
जैसे मुझे उसकी होती जरुरत है
उसे भी तो कभी मेरी जरुरत दे ।
-अजय प्रसाद
लोग मेरी तरक्की से तिलमिला गए
उनके चाहनेवालों में जब हम आ गए।
तारीफ़ क्या कर दी उनके चेहरे की
सारे के सारे फूल मुझपे बौखला गए।
बैठा रहा दिन भर चांद मुँह फुलाए
रात छत पर मेरे साथ वो जो आ गए ।
जल गई श्म्मा भी जलन से देख मुझे
उनकी महफिल मे हम जब छा गए।
बादलों ने तो बगावत की ठान ली है
उनके गेसूओं से खेलकर जो आगए ।
हवाएँ भी सोंच में पड़ी है चलें या नहीं
सब मिलके अजय तेरी जाँ पर आ गए।
-अजय प्रसाद
नींदे मेरी ख्वाब तेरे
कांटे मेरे गुलाब तेरे।
अक़्सर है यही हुआ
गज़लें मेरी आदाब तेरे।
खुशियाँ तेरी गम मेरे
दुआ मेरी शबाब तेरे ।
बेहद खामोश रहते हैं
सवाल मेरे जवाब तेरे।
अज़ीब हाल कर दिया है
ज़िंदगी मेरी अज़ाब तेरे
-अजय प्रसाद
आपके विकास वादी सोंच को सलाम
बेहद सलीके से लूट खसोट को सलाम ।
अच्छा लगता है कि आप फ़िक्र करतें हैं
ज्म्हुरियत के पाँव के मोच को सलाम।
वाह!वाह!क्या इन्तेजाम किया है आपने
कैसे सब कुछ है लिया,दबोच को सलाम ।
अपना क्या है कुछ दिनों जी कर मरेंगे
आप के दिये दिल पे खरोंच को सलाम ।
जरा तमीज़ में रहा करें अजय आप भी
आपके बेहूदा नासमझ सोच को सलाम।
-अजय प्रसाद
नयी गज़ल से उसे नवाज़ दूँगा
खामोश रह कर आवाज़ दूँगा ।
बहुत खुश रहूँगा उसे भुला कर
आशिक़ी को नया रिवाज़ दूँगा ।
ज़िक्र नहीं करूँगा ज़िंदगी भर
फिक्र को नया ये अंदाज़ दूँगा ।
रश्क करेंगे रक़ीब भी मेरे साथ
नफ़रत करने को समाज दूँगा ।
ज़ुर्रत कर नहीं सकता दिल भी
अजय इतना उसे रियाज़ दूँगा ।
-अजय प्रसाद
और होंगे तेरे रूप पर मरने वाले
हम नही है कुछ भी करने वाले।
मुझको कबूल कर तू मेरी तरहा
हम नहीं है इंकार से डरने वाले ।
हाँ चाहता हूँ तुझे ये सच है मगर
हद से आगे नहीं हैं गुजरने वाले।
नये दौर का नया आशिक़ हूँ मैं
हम नहीं कभी आहें भरने वाले।
लाख कर ले कोशिश अजय तू
आदतें नहीं हैं तेरे सुधरने वाले।
-अजय प्रसाद
अपनी महबूबा को मुश्किल में डाल रहा हूँ
उसकी मोबाईल आजकल खंगाल रहा हूँ ।
क्या पता कि कुछ पता चल जाए मुझे यारों
क्यों मैं उसकी नज़रों में अब जंजाल रहा हूँ।
उसकी गली के कुत्ते भी मुझ पर भौंकते हैं
कभी जिस गली में जाकर मालामाल रहा हूँ।
जिसके निगाहें करम से था मैं बेहद अमीर
फिर अब किस वज़ह से हो मैं कंगाल रहा हूँ।
बेड़ा गर्क हो कम्बखत नये दौर में इश्क़ का
था कभी हठ्ठा क्ठ्ठा अब तो बस कंकाल रहा हूँ
-अजय प्रसाद
अतीत से निकल वर्तमान में आ
फ़िर ज़िंदगी के जंगे मैदान में आ।
कब तक रोएगा तू नाकामियों पर
जी चुका जमीं पे आसमान में आ ।
दूसरों पे तोहमत लगाने से पहले
जा झांक के अपने गिरेवान में आ।
वादा है चुकाऊँगा मोल जाँ दे कर
मुझसे इश्क़ करके,एहसान में आ ।
झूठ के पाँव नहीं होते,सच है मगर
मत किसी झांसे में बेइमान के आ ।
-अजय प्रसाद
साया-ए-मजबुरी में जो पले थे
लोग वही बेहद अच्छे भले थे ।
आपने जश्न मनाया जिस जगह
वहीं रातभर मेरे ख्वाब जले थे।
हुआ क्या हासिल है मत पूछिये
क्या सोंच के हमने चाल चले थे।
हो गए शिकार शिक़्स्त के यारों
सियासत के पैंतरे ही सड़े गले थे ।
छिड़क गए है नमक ज़्ख्मों पर
‘वो’जो मरहम लगाने निकले थे।
-अजय प्रसाद
अब मदारी को बंदर नचाएगा
देखते हैं कितना मजा आएगा ।
जैसे बंज़र हो रही है ये धरती
वैसे समंदर भी सूख जाएगा ।
तुम खुश हो अपनी दुनिया में
वो इसी का फ़ायदा उठाएगा ।
‘सब चलता है यार’कहने वालों
बस ये सोंच ,तुम्हें लूट जाएगा ।
औकात में रहा करो तुम अजय
वर्ना अरेस्ट कर लिया जाएगा।
-अजय प्रसाद
शराब ,कबाब और शबाब चाहिए
ज़र्रे को भी अब आफताब चाहिए।
इसलिए वो इलेक्शन में खड़े हुए हैं
पावर भी उनको बेहिसाब चाहिए।
छिंका टूटा है बिल्ली के भाग से ही
मगर उन्हें तो बस खिताब चाहिए ।
और कितने दिनों रहेंगे सुकून से वो
सबक सिखाने को अज़ाब चाहिए।
फक़त तक़रीर से कुछ नहीं होता
लुभाने को नये लब्बोलुआब चाहिए।
-अजय प्रसाद
इश्क़ में भी अब इंस्टालमेंट है
आशिक़ी में भी रिटायरर्मेंट है ।
कितने मच्यौर हुए लैला-मजनू
लीविंग रिलेशन अपार्टमेन्ट है ।
सस्ता उत्तम टिकाऊ प्यार का
अब तो अलग डिपार्टमेन्ट है ।
चेह्र पर हँसी औ दिल में खुन्नस
आजकल तो ये एडजस्टमेंट है ।
अंदाज़ा लगाता है तू तस्वीरों से
कितना गलत तेरा ये जजमेंट है ।
कर ले एन्जॉय जी भर आज ही
क्या पता कल मौत अर्जेन्ट है
-अजय प्रसाद
हम कभी कामयाब शायद न हों
ज़र्रे से आफताब शायद न हों ।
तोहमत मेरी मुफलिसी पे तू रख
बेवफ़ा वो जनाब, शायद न हों ।
जब मेरा है वजूद कुछ भी नहीं
मेरे खातिर खिताब शायद न हों ।
रोज़ नज़रें मेरी दुआ ये करे
आज रुख पर हिजाब शायद न हों ।
खुश न होना जो पास वो आए तो
उनके हाथों में गुलाब शायद न हों ।
-अजय प्रसाद
अब देखें और जमाने से क्या मिलता है ?
जख़्म ,जिल्लत ,दर्द या दवा मिलता है ।
बूझने नही देते नेता नफरत की आग को
आपस में लड़ा कर ही इन्हे मज़ा मिलता है ।
इश्क़ ने हमें भी आखिर ये इल्म करा दिया
आशिक़ी में अक़्सर बहुत कम वफ़ा मिलता है ।
झूठ कहतें हैं खुदा के घर देर हैअंधेर नहीं
नेकियों काअब कहाँ नेक सिला मिलता है ?
जमाना गुजर गया है अपने आप से मिले हुए
अब अजय आईना भी हमसे खफा मिलता है ।
-अजय प्रसाद
अपने ही मेयार पे चल नहीं पाया
जमाने की सोंच मै बदल नहीं पाया ।
हरबार हमने थे तय किये कुछ बातें
कर किसी पर भी अमल नहीं पाया ।
लाख की हमने कोशिशें टालने की
मगर बला कोई भी टल नहीं पाया ।
यूँ गिरे औंधे मुँह ठोकर से इश्क़ में
जिंदगी में अब तक संभल नहीं पाया ।
अरमान मेरे दिल में छटपटाते रह गए
मगर यारों एक भी निकल नहीं पाया ।
-अजय प्रसाद
हालात ने हमको हक़ीक़त दिखा दिया
है कौन अपना इस जग में, बता दिया ।
रहते थे हम सदा महफूज़ खुशफहमी में
अपने ही लोगों ने हम को रुला दिया ।
रूठ कर हमसे हमारे ख्वाब भी चले
गफलत की नींद से हमको जगा दिया ।
समझा क्या होती है बेफिक्रि दोस्तों
जब बचपन को जवानी ने मिटा दिया।
गंवा दी पूंजी हमने बच्चों को बनाने में
आज कहतें हैं आप ने हमें क्या दिया ?
-अजय प्रसाद
बनाएँगे हम सरकार ,जनता के हित के लिए
भले न मिले बिचार ,जनता के हित के लिए ।
गफ़लत में सत्ता कहीं हाथों से निकल न जाये
हम ज़मीर को देंगे मार ,जनता के हित के लिए ।
शायद फ़िर किसी से किसी को शिकायत न हो
मिल के करेंगे भ्रष्टाचार ,जनता के हित के लिए ।
भांड़ में जाए नैतिकता,जो दूर करे हम से सत्ता
हमें नहीं इसकी दरकार ,जनता के हित के लिए ।
पार्टियाँ सारी हैं बेहद मशगूल मतलबपरस्ती में
हो कौन चोरों का सरदार,जनता के हित के लिए ।
-अजय प्रसाद
सादा जीवन,है उच्च विचार
भूख गरीबी और बेरोजगार।
हम दल बदल में हैं माहिर
चाहे भाड़ में जाए सरकार ।
जिसकी लाठी उसकी भैंस
जीवित रहने का है आधार।
काविल करते खिदमत यहाँ
चापलूस बने हैं ओहदेदार।
बंद करके आँखें चुपचाप जी
गर है अजय बेहद समझदार ।
-अजय प्रसाद
संवर जाती है
धूप जब बर्फ़ सी पिघल जाती है
मजदूरों के पसीने में ढल जाती है।
ठंड जब हद से गुजर जाती है
झोपड़ीयोंं में जाकर ठिठुर जाती है ।
बारिश जब भी गुस्से में आती है
कई गांवों और कस्बों में ठहर जाती है।
मौसम की मार झेलने में माहिरों
तुम्हारी वज़ह से तिजोरियां भर जाती है ।
ये कुदरत का कानून भी कमाल है
वक्त के साथ ज़िंदगी संवर जाती है
-अजय प्रसाद
कैसे बताऊँ यारों कितना मैं सहनशील हुआ हूँ
जब से सहित्यिक ग्रुप का मैं ऐडमिन बना हूँ ।
सुबह,शाम,रात और दिन है कर दिया कुर्बान
तब जाकर कहीं थोडा सा मैं नामचीन हुआ हूँ ।
ऑनलाइन सम्मेलन औ साप्ताहिक विश्लेशण
सिलसिलेवार ढंग से सब मैने मेनटेन किया हूँ ।
भांती-भांती के साहित्यकारों को जोड़ा है मैने
तुम्हें क्या पता सबको कितना एंटरटेन किया हूँ ।
जाओ अजय तुम भी कभी मुझें याद रखोगे
तुम्हारे बकवास शायरी पे भी कमेन्ट्स किया हूँ
-अजय प्रसाद
‘वो’ जिनके नाम से शायरीयाँ सुनाते हो
क्या सचमुच तुम इतना प्यार जताते हो।
प्यार कभी शब्दों में वयां होता है क्या
फ़िर क्योंकर भला खुद पर इतराते हो।
तारीफ़ तन-बदन तक सीमित रहता है
तो रिश्ता रूह का है क्यों बतलाते हो ।
फिदा हो जाते हो उसकी अदाओं पर
खुबसूरती पे ही उसके तुम मर जाते हो।
हक़ीक़त है कि तुम्हें प्रेम हुआ ही नहीं
बस दैहिक आकर्षण में उलझ जाते हो ।
अव्यक्त प्रेम सर्बोत्तम है जान लो तुम
जिसे बिना अभिव्यक्ति के ही निभाते हो ।
-अजय प्रसाद
चलिए अच्छा है सोशल मीडिया पर लड़ रहे हैं
तकनिकी तरिके से हाथ धोकर पीछे पड़ रहे हैं।
जुबानी जंग बेहद फायदेमंद साबित हो रही है
बिना एक दूसरे को छूए ही तमाचे जड़ रहे हैं।
डिजिटलीकरण का बेहतरीन इस्तेमाल कर के
मुहतोड़ कमेंट्स के ज़रिए ही दोनो झगड़ रहें हैं।
फ़ेसबुक,वॉट्सएप्प इंस्टाग्राम और ट्वीटर पर
नेता,अभिनेता,पक्ष,विपक्ष बेखौफ़ रगड़ रहे हैं ।
नये ज़माने की बस इक यही बात बुरी लगती है
बिना सोंचे समझे अपनी बस्ती से उजड़ रहे हैं ।
-अजय प्रसाद
गड़े हुए मुर्दे,यारों उखाड़ रहा हूँ
पढ़ कर पुराने खत फाड़ रहा हूँ ।
कहीं कोई कमी न रहे भुलाने में
यादों के चमन को उजाड़ रहा हूँ।
हूँ तो मैं खफ़ा खुद से ही मगर
बेबज़ह बच्चों पे दहाड़ रहा हूँ।
सादगी ने मेरा किया सत्यानाश
निकलेगा चुहा,खोद पहाड़ रहा हूँ ।
किसी काम आया न जब अजय
बिक गया जैसे, मैं कबाड़ रहा हूँ
-अजय प्रसाद
“पढ़ी रचनाएँ आप ने तो मेरा काम हो गया
की आपने तारीफें तो मेरा नाम हो गया ।
अब तो मुझे मरने का भी कोई गम न होगा
कुछ पल को सही दिल मे मुकाम हो गया ।
मैं क्या जानूं छ्न्द और बहर के उसुलों को
देखा,सुना,महसूस जो किया कलाम हो गया ।
मेरे लिए तो खयाल बेहद अहम है गज़ल में
मगर अदिबों की नज़र में मैं बदनाम हो गया ।
न माज़ी से गुरेज़ न मुस्तकबिल से परहेज है
मेरी शायरी का शिकार हाले अवाम हो गया ।
फक़त नाम से ही मैं ‘अजय ‘रहा हूँ दोस्तों
हारना हर हाल में खुद से मेरा इनाम हो गया ।
-अजय प्रसाद
(1)
जी लेंगे झोंपड़ी में हुजूर चिंता न करें
यही है गरीबी का दस्तूर चिंता न करें ।
आप तो फ़िक्र करें अमीरों के लिए
हम लोग तो हैं मज़दूर चिंता न करें ।
मतदान से पहले आप ये दान दे रहे हैं
आप भी हैं खुद मज़बूर चिंता न करें ।
शिकवा क्या करना जब फ़ायदा नहीं
हम तो हैं ही एक फ़ितूर चिंता न करें ।
तुम भी न अजय उटपटांग बकते हो
जाने कब आएगा शऊर चिंता न करें ।
-अजय प्रसाद
(2)
देखता हूँ भूखा हैऔर नंगा है
मगर हाथों में लिये तिरंगा है ।
हक़ उसे है जश्ने-आज़ादी का
क्या हुआ अगर भिखमंगा है ।
देशभक्ति उसकी रग रग में है
जैसे वो जल पवित्र गंगा है ।
फ़िक्र वो भी करता है देश की
लेता रोज़ वो गरीबी से पंगा है ।
मैला है तन से मन में मैल नहीं
यारों जैसे कठौती में गंगा है ।
-अजय प्रसाद
(3)
ढाक के तीन पात मैं नहीं लिखता
दिल के खयालात मैं नहीं लिखता ।
आँखो से उतर आती है कागज़ पे
सपनों की सौगात मैं नहीं लिखता ।
न आंखे झील सी हैं न चेहरा कंवल
हुस्न के हालात मैं नहीं लिखता ।
बेवफाई,जुदाई हरज़ाइ या गमेइश्क़
घिसे-पिटे ज़ज्बात मैं नहीं ल