आस बिखर रहे
कलयुग की इस भाग दौड़ में,
आधुनिकता की पड़ी होड़ में,
जीवन का मूल्य न देखे कोई,
बस आय नोटों के शिखर रहे।
स्वस्थ सुंदर और सुघर काया,
नहीं रही अब दीर्घायू माया,
लेप दिख रहा तन पर सुन्दर,
हैं मानव ये कैसे निखर रहे।
छोड़ सभी रिस्ते नाते अब,
नग्न धुन पर अब गाते सब,
संस्कृति देखो कॉप रही है,
मानव को नहीं फिकर रहे।
रोती है धरा वृक्ष कटने से,
अम्बर रोये भाई बँटने से,
मानवता पर विपदा छाई,
आस हर पल बिखर रहे।