आषाढ़ी संध्या घिर आई
श्याम रंग घन नभ में छाया
आषाढ़ का मास सघन हो आया
वर्षा का परिचित स्वर सुनकर
नाच रहा मन झूम-झूम कर
पादप-विटप लता-तरुओं पर
दूर-दूर बिखरे-सूखों पर
उमड़-घुमड़ कर मेघ ये बरसा
प्यासी धरती का मन हर्षा
घिरे हुए है घन कजरारे
मनमोहक सुन्दर ये नज़ारे
झड़ी लगी है कितनी मनहर
बरस रहे हैं बादल झड़-झड़
बारिश के मनभावन पल में
विरहानल है कोलाहल में
दामन छूकर पवन झकोरे
उन्माद भर रहा मन में मेरे
चंचल मन पंछी सा चहके
उर-उपवन में सुमन सा महके
अभिलाषा है इन नैनन की
मोहक माया देखूं प्रकृति की
कम्पित होता है अंतर्मन
होता है कुछ ह्रदय में पुलकन
शर्माती सकुचाती आई
भाव अनेकों जगाती आई
श्यामल नेह लुटाती आई
आषाढ़ी संध्या घिर आई.
भारती दास ✍️