आशा का संबल
आशा का संबल
आशा और निराशा में दोलायमान मन
कभी उड़ने लगता है –
गगञ्चुंभी शिखरों पर हिमाच्छादित पर्वतों के –
उसी तरह लहरा कर , इस कदर इतरा कर
जैसे खोई उम्मीदें मिल गई हों –
निराशा की गहरी घाटी में
सहमे सिकुड़े पड़े इंसान को –
जो जीवन से बेबस टूट रहे
दमन के चीथड़ों को समेटे हुए
मजबूरी से जकड़े हुए
इंतज़ार कर रहा हो आशा के
महीन से संबल का –
जिसे वह भली भांति संभाल
भले ही न पाए
पर गिर भी न पड़े
निराशा के गर्त में ।
हर बात से प्रेरणा ले कर
जीवनोत्साह से । सम्पन्न हो
अग्रसर होने लगता है मन
प्रगति पथ पर शायद स्वप्न लोक के ।
उस चमक दमक और शानोशोकत को
देख कर चौंध्या जाता है यकायक
फिर वास्तविकता के धरातल पर
पाँव पड़ते ही एहसास हो जाता है –
जीवन की रिक्तता का —-
जिस की पूर्ति की अभिलाषा ने
उसे इस स्थिति पर पहुंचाया था ।
जहां आ कर काल्पनिकता को
वास्तविकता का जामा पहना
सांत्वना दे रही थी उसके निराश मन को ।
और दूसरे ही क्षण – यथार्थ
जो अपने अस्तित्व को संकट में जान
तुरंत समक्ष आ जाता है
अपनी उपस्थिति का बोध कराने –
जिस की आतिशय परितीति से
तन मन हो जाता है शिथिल
ओर आभास हो जाता है दूसरे ही पल में
जिस से चारों ओर निराशा के गहरे साये हें –
प्रतिफल भयभीत करते
मन को इस जीवन से अलग करते
जिन्हें देख कर वास्तव में
जीवन से भाग उठने की तमन्ना हो उठती है ,
जिसे समक्ष देखने के विचार मात्र से
कंपित, विचलित हो जाता है मन –
ऐसे निराशा से पूर्ण क्षण
दुर्गम कर देते है जीवन पथ ।
पर फिर भी हो सकते है विजित
‘गर मार्ग दर्शन हो समुचित ।
गमगीन ज़िंदगी मृत्युसम है
हँसना ‘गर है तो जीवन है ।
लाखों कांटो में हँसता खिलता गुलाब
देता जीवन संदेश इस कदर लाजवाब –
जब इस जीवन को पाया है,
और जीना मन को भाया है,
तो क्यूँ न जिये उत्साह से हम
प्रति पल बदते न रुके ये कदम।