आलम्ब सबको चाहिए
बात बस कुछ ही दिनों की
निष्प्राण से एक
शुष्क तरु पर
कोई कोयल कूजी थी ।
सुनकर उसकी कूज कोमल
शेष था कुछ
तरू में जो जल
फिर पुनः
निर्माण में वो जुट गया ।
यूं लगा उसको
कोई हल मिल गया ।
आज थी प्रातः सुहानी
शुष्कता वो तज रहा था।
कोकिला के स्वर से फिर
उस तरू में जीवन
पल रहा था ।
आज सूरज था सुनहरा
और हवा में रागिनी
आनन्द में सारे दिवस
और सुहानी यामिनी ।
हाय धिक् !
फिर समय का ये चक्र घूमा
शीत ऋतु का आगमन है ।
प्रवास आवश्यक हुआ
आज कोकिल का गमन है।
था अभी सन्निकट जीवन
अब असीम वेदना ।
कुछ न सूझे कुछ न बूझे
कैसे दुर्दिन भेदना ।
कोकिला आलम्ब थी
मृत्यु को जिसने हरा था ।
तरु को दे संवेदना
नीड़ जीवन का बुना था ।
जन्मते सब ही अकेले
हां ये सच्ची बात है ।
आलम्ब सबको चाहिए
जीवन तभी विस्तार है ।
हमको डराती है बहुत
कल्पना भी शून्य की ।
शूर हों या बुद्ध हों
सब खोजते आलम्ब ही ।