आरोप ब्रह्मत्व का
तराशे बेढँगे पत्थर।
मुक्ता‚ मणि और मोती के
हिंडोले पर।
संगमरमरी‚ खुशबूदार
देव मन्दिरों में।
रात की ठिठुर गयी ठंड
काँपती‚सिसकती बयार।
और मन्दिर के
भिड़े किवाड़ों से सटा
एक बेजान जवान बूढ़ा
उकङूँ बैठा
पैर पेट में धँसाये
बर्फ की तरह ठंडे बदन पर
एक कटा–फटा चिथड़ा
चादर के नाम पर फैलाता है।
फैलकर फट जाती है चादर‚
बहकर सूख जाते हैं आँसू।
देवता और मानव का फलसफा–
झूठ की सच पर गहरी छाया।
ब्रह्मत्व का आरोप बजाय जड़ के
जीव में होता‚ जीवन में होता।
पत्थर में नहीं मानव में होता।
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अरुण प्रसाद