आरक्षण का दरिया
आरक्षण का दरिया
(छन्दमुक्त काव्य)
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मैं आरक्षण का दरिया…
चला था संसद से निकलकर ,
सुदूर गांवों तक जाना था मुझे ।
शहर कस्वा देहात ,
हर इलाके को पोषित करना था मुझे।
दरिये में पानी भी था ,
रवानी भी था।
पर भटक गया सुनहरी वादियों में ,
गोल गोल चक्करदार घूमता ही रहा मैं,
भंवर में,
मुश्किलों का भंवर है ये तो।
एक ही जगह पर ,
एक ही बहर पर ,
उफनता रहा रह-रह कर।
बहर-ए-ख़ुदा का मिजाज ही कुछ ऐसा था_
गोल गोल घूमता ही रहूँ मैं जीवन भर ,
आगे बढूँ ही नहीं।
अब घुटन हो रही है मुझे ,
दर्द छिपा कर कब तक रखूँ मैं ,
प्यासे को पानी की एक बूँद भी न दे सका मैं।
टकटकी लगाए देखता ही रह गया वो ,
सीमित अवधि मिली थी ,
मंज़िल तक पहुंचना था मुझको।
अब दोष किस पर मढ़ दूँ ,
कलियुग है ,
मैं खुद को दोषी ठहरा नहीं सकता ,
स्रष्टा पर दोष मढ़ना ही उचित है।
क्योंकि फंसा था तो मैं ,
स्रष्टा के दुष्चक्र में ही…
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – १५ /०१/२०२३
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विक्रम संवत २०७९
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