“आया मित्र करौंदा..”
क्षणभंगुर जीवन की गाथा,
मनुज समझता, क्यों ना।
समय बीतता, करते-करते,
प्रतिदिन आधा-पौना।
मँहगे कपड़े, गद्दे मँहगे,
जुटें, तभी हो गौना।
दिया प्रकृति ने भले, घास का,
मख़मल सदृश बिछौना।
नैतिक शिक्षा की बदहाली,
दिखता रूप घिनौना।
अहम् बोलता सिर चढ़कर,
सद्भाव हो चला बौना।।
प्रेम भाव ही सार,न समझो,
दिल को कोई खिलौना।
महल-दुमहलोँ से अच्छा,
मिट्टी का एक घरौंदा।।
चलते-चलते, लगे देखने,
आसमान का, कौँधा।
ठोकर खाई, सम्हल न पाए,
तुरत गिर पड़े औँधा।।
गिरा पुष्प ज्यों भू पर,
क़दमों तले, गया था रौँदा।
दिल बहलाने, पाठ पढ़ाने,
आया मित्र करौंदा..!