आदमी रोज उठता है …….
आदमी रोज उठता है घडी के इशारे पर…
प्रतिदिन वही करता है जो रोज करता है
उन्ही कामों की आवृति…
कुछ भी नया नहीं!
घड़ी देखकर घर से निकलता है
घर लौट आता है घडी के इशारे पर!
हाँ हर दिन सोच नयी हो जाती है
शाम ढलते-ढलते पुरानी हो जाती है।
आदमी मन को समझाता है
मन आदमी को दौड़ाता है!
मगर आदमी ने ठान रखा है
कि मैं थकूंगा नहीं आखरी साँस तक—
उसे शायद पता है कि नहीं!
घड़ी से घड़ी की इस आपाधापी में
घड़ी का एक अंतिम इशारा भी होगा —
पता नहीं!
उस वक्त वह घड़ी देख पायेगा या नहीं।
पेड़, पंछी, नदियाँ, सूरज चाँद-सितारे–
स्वछंद सदा, यहाँ नहीं कोई बंधन कोई इशारे।
मुकेश कुमार बड़गैयाँ, कृष्णधर दिवेदी