आदमी की संवेदना कहीं खो गई
शहरीकरण में हम, कहां से कहां खो गए
संवेदनशील थे हम, संवेदनहीन हो गए
गांव थे अच्छे खासे, सब शहर हो गए
जल जंगल जमीन, शहरों में खो गए
संवेदनाएं खो गईं, सब शहरी हो गए
आवोहवा बिगड़ गई, बीमार हो गए
सुविधाओं के आदी, आलसी हो गए
पता नहीं है हम, क्या से क्या हो गए
खेत खलियान वन भूमि, शहर में समा गए
गगनचुंबी इमारतों में, जिंदगी समा गई
आदमी की आदमीयत, शहरों में खो गई
सुरेश कुमार चतुर्वेदी