आदतों में जो थी आवाजें।
आदतों में जो थी आवाजें, वो मौन में समा गयीं,
आहटें जो रहती थी नियमित, शून्यता के हिस्से में आ गयीं।
मीठी धूप की थी शिरकतें, काली घटा भरमा गयी,
आँखों में थी जो मुस्कुराहटें, पलकों को अश्रु बन सहला गयीं।
फ़िक्र में थी जो शख्सियत, मृत्यु उसे सुला गयी,
एक छाँव सी रहती थी हरपल, तूफां जिसे उड़ा गयी।
सौंधी बातों की थी जो राहतें, बीते किस्से बन सहमा गयी,
रिश्ते में थी सुकूं की झलक, वो आईना कहीं गँवा गयी।
अनकही सी थी हिम्मतें, मरघट जिसे जला गयी,
सूखे पत्तों में भी थी रंगतें, कोरी क़िस्मत जिसे चुरा गयी।
गर्म होती थी सर्दी में जो चादरें, जीर्णता उनके धागों को भा गयी,
किस्से करें अब वो शिकायतें, तेरे जाने से जो हमें सता गयी।