आज ये आजादी मुझको झूठी लगती है…
माँ-बहन-बेटी यहाँ क्यूँ,
डर-डरके चलती हैं ।
आज ये आज़ादी मुझको,
झूठी लगती है ।
माँग सके न मेहनताना,
इक मज़दूर अपनी मजदूरी का,
मिलता है दुत्कार सदा क्यों,
जिसका न वो हक़दार है ।
इंसान से लंबी खड़ी यहाँ,
जातिवाद की रेखायें,
मूँछ रखने पर भी मिलती हैं,
रूह कपाती यातनायें ।
अश्व बैठकर चल सके न,
दूल्हा अपनी शादी में,
समता का अधिकार ये छीने,
क्या मिलता इन्हें हमारी बरबादी में ।
पशुओं को अधिकार हैं सारे,
मानवता का गला ये घोंट रहे,
इंसानों से क्यों नफ़रत है,
ख़ातिरदारी पशुओं को दे रहे ।
मानव का मानव से न प्रेम रहा,
मानव ही मानव को दुःख दे रहा,
“आघात” तू भी मानुष होकर,
क्यूँ मानव से कटती है ।…….आज ये आजादी मुझको…….