आज गरीबी की चौखट पर (नवगीत)
नवगीत _21
आज गरीबी
के चौखट पर
चित्त पड़ी है क्यों महँगाई ।
जीवन जीने
की प्रत्याशा
क्षुब्ध कहीं आँखें मलती है
छोड़ शहर के
संसाधन सब
मजबूरी पैदल चलती है
फूट रहे हैं
तप्त फफोले
आज वतन के पैरों में फिर ।
दुनिया डरकर
कैद घरों में
साथ निभाती है अलसाई ।
मास्क लगाकर
भय दौड़ा है
जीवन का अस्तित्व बचाने
सुन्न पड़ी है
जीवन शैली
मौत यहाँ बैठी सिरहाने
व्यवहारों के
परिवर्तन से
सुस्त पड़े है रिश्ते-नाते
अवसर पाकर
कोरे मन को
नाप रही है नित लघुताई ।
वक़्त रुका है
चौराहों पर
प्रगतिशीलता मुँह की खाती
राजनीति भी
जोड़ रही है
अँधियारे जनमत की बाती
त्राहि मची है
जनमानस में
मात्र हिदायत जारी होती
चातक-जनता
आश लगाए
देख रही बादल -पुरवाई ।
-रकमिश सुल्तानपुरी