आज की पत्रकारिता
आजकल समाचार पत्र और टीवी
पत्रकारिता को क्या हो गया है ,
देश की जो असली मुद्दा है
उससे आजकल सबने किनारा कर लिया है।
सब अपने -अपने फायदे के लिए
टी.आर.पी के पीछे जा रहे हैं,
जब देखो देश के कुछ गिने चुने
लोगों की मुद्दा को उठा रहे है।
देश की असली मुद्दा पर
कोई बात नही हो रहा है,
असली मुद्दा तो लगता है जैसे
नकली मुद्दो के पीछे दब गया है।
आम आदमी परेशान है कि
कोई महंगाई की बात करे,
बेरोजगार परेशान है कि
कोई तो रोजगार की बात करे।
बेघर छत तलाश रहा है।
लेकिन देश में चर्चा का विषय
आजकल कुछ और ही बना हुआ है।
जहाँ देखो हनुमान या अजान,
हिंदु या मुसलमान के इस बनावटी
मुद्दो को उछाला जा रहा है।
भुख -प्यास से तड़पते हुए लोग
इन्हें अब दिख नहीं रहे हैं
बेरोजगारी की हाल तो
पूछिये नही जनाब,
इसको तो दूर-दूर तक कोई
समाचार पत्र चर्चा में भी
नही ला रहे है।
और इधर बेरोजगारों की
हालत यह है कि
जीवन के तीस- पैतीस साल
पढ़ाई में झोंक देने बाद
किलों भर डिग्री सर पर रखकर
नौकरी के लिए इधर-उधर भाग रहे है।
इतने सालों की पढ़ाई के बाद
अब वे ठेला, दुकान और मजदूरी कर
पेट पाल रहे है,
और कथित समाचार पत्र वाले इन्हें
स्वरोजगार का नाम दे रहे है।
गाँव से पढने के लिए आए हुए
बेरोजगारों की अलग-अगल दुख भरी
कहानी है ,
किसी के माँ ने गहना बेचकर
पैसा दिया था पढने के लिए ,
बोली थी नौकरी करना तो खरीद देना।
किसी के पिता ने खेत बेचकर,
तो किसी ने कर्ज लेकर,
सबके अपनी दुख भरी कहानी है,
पर सुनने वाला कोई नही है।
एक बेरोजगार ने कहा,
गाँव से आए थे पढने के लिए शहर
सोचा था साहब बनकर
गाँव वापस जाऊँगा।
आज मजदूर बनकर शहर से
गाँव के तरफ जा रहा हूँ।
कई रात शहर में भुखा बिताया था।
डिग्री को सिराहने के तले रखकर
रात सड़को पर गुजारा था।
कई कष्टो का सामना कर
नौकरी खोज रहा था।
इधर-उधर नौकरी की तलाश मै
दफ्तरों के चक्कर लगाते हुए
चप्पल की बात अब छोड़ो,
अब पैर भी घीस गये।
पढते-पढते अब आँखो की
रोशनी भी बहुत कम गई है।
लगता है अब कुछ न हो पाएगा,
सबकुछ खोकर फिर गाँव
वापस जा रहा हूँ।
बेरोजगारी का यह आलम है कि
दिन-प्रतिदिन बेरोजगारी की संख्या
बढती जा रही है,
और देश में इसकी चर्चा
घटती जा रही है।
मै भी कुछ न कर पाई
इसलिए आजकल बिना पगार
कविता लिख रही हूँ,
~अनामिका