आगे क्या !!!
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सब्र की थी ज़िन्दगी,
डेली का था एक रुटीन।
शाम को माँ के हाथ की चाय,
और एक प्याला नमकीन।।
समय था थोड़ा पुराना,
मैं था कक्षा 12 में,
घर से कोचिंग, कोचिंग से स्कूल, स्कूल से घर।
शाम को वही माँ के हाथ की चाय,
और एक प्याला नमकीन।।
साल था 2001 और,
मार्च की थी कोई तारीख।
एग्जाम का देकर आखिरी पेपर,
पहुँच गया पापा के दफ्तर।।
एक अंकल मिले थोड़े समझदार,
बोले बेटा “आगे क्या ”
ना समझ थी हमें, ना कभी मिले किसी काउंसलर से,
अगले साल बैठे करने इंजीनियरिंग प्राइवेट कॉलेज से ।।
बस सब्र की थी ज़िन्दगी,
घर से कॉलेज, कॉलेज से घर का रूटीन।
शाम को माँ के हाथ की चाय,
और एक प्याला नमकीन ।।
जैसे तैसे,
हो ही गयी इंजीनियरिंग।
रिजल्ट वाले दिन “टपक पड़े ”
वो वाले अंकल,
पीने को मेरी माँ के हाथ की चाय,
और खाने एक प्याला नमकीन।
खाते कहते फिर बोले,
बेटा आगे क्या ।।
PSU का था भूत सवार,
GATE, PSU की तैयारी में लगे ईमानदारी से।
अगले ही महीने खड़े थे क्लास में,
पढ़ने नहीं अब पढ़ाने पूरी तैयारी से ।।
बस सब्र की थी ज़िन्दगी,
घर से कॉलेज, कॉलेज से घर का था रूटीन।
शाम को अब माँ ,
नहीं नहीं अब श्रीमती के हाथ की चाय,
और एक प्याला नमकीन।।
दो साल में PSU का भूत उतर गया,
GATE भी अब लोकल यूनिवर्सिटी में खुल गया।
अब वापस बैठे हैं करने,
M.E. यूनिवर्सिटी की क्लास से।।
सब्र की थी ज़िन्दगी,
घर से कॉलेज, कॉलेज से घर का था रूटीन।
शाम को श्रीमती के हाथ की चाय,
और एक प्याला नमकीन ।।
प्लेसमेंट को थे बहुत हाथ पैर मारे,
पर कोई तरीका काम ना आया।
डिग्री पूरी होने पर उन्ही अंकल का फ़ोन आया,
बोले की बेटा “आगे क्या “।।
अब वापस से थे हम,
उसी पुराने कॉलेज में पढ़ाने।
सब्र की थी ज़िन्दगी,
घर से कॉलेज, कॉलेज से घर का रूटीन।
शाम को श्रीमती के हाथ की चाय,
और एक प्याला नमकीन ।।
पर कुछ कमी थी जीवन में,
सब्र अब बेसब्र हो चला था।
पीएचडी करने का ख्वाब अब,
सर चढ़ने लगा था ।।
आखिर हो ही गया पीएचडी में एडमिशन,
सब्र की थी ज़िन्दगी,
घर से कॉलेज, कॉलेज से घर का रूटीन।
शाम को श्रीमती के हाथ की चाय,
और एक प्याला नमकीन।।
कोर्सवर्क ख़त्म होने के बाद,
उतरे रिसर्च की मझधार में।
कभी किस्मत तो कभी सॉफ्टवेयर,
की पतवार में ।।
एक दो तीन चार,
करते करते रिजेक्शन की गिनती 10 के पार।
दिल था खामोश कुछ कह ना पाया,
पेपर एक्सेप्टेन्स के तार जोड़ ना पाया ।।
अरे अब ये क्या हो गया,
IIT INDORE में पीएचडी का स्टाईपेंड 4 साल ही हो गया।
अब तो पीएचडी के पांचवे साल में सदमे का हैं आलम,
बाहर आने का था ना कोई कॉलम ।।
फिर लैबमेट के रूप में,
आया एक तारणहार।
बताये उसने मुझे,
एक्सेप्टेन्स के तरीके चार।।
सब्र की तो ना थी अब ज़िन्दगी,
और अब कोई रूटीन ना था।
शाम को मेस की घटिया चाय,
और 10 वाला नमकीन था ।।
अब जब हम पहुंचे,
थीसिस सबमिशन की दहलीज।
लिफ्ट से बाहर निकलते निकलते,
कोई पीछे से बोला “एक्सक्यूज़ मी, साइड प्लीज “।।
पलट कर मैंने देखा,
मेरा मन अंदर से बोला, अरे ये क्या।
ये तो वही अंकल हैं,
वो फिर बोले बेटा “आगे क्या ”
अब तो उन अंकल को,
देखने का मन नहीं करता।
पीएचडी के आगे,
कुछ करने का मैं दम नहीं भरता ।।
अब उम्मीद हैं की आगे।
सब्र की होगी ज़िन्दगी,
डेली का होगा एक उबाऊ सा रूटीन।
शाम को श्रीमती के हाथ की चाय,
और एक प्याला नमकीन ।।
महेश कुमावत