आखिर क्यों …
एक दिन बैठा हुआ था,
मैं जाने किस सोच में ?
चल पड़ा फिर पार पथ पर,
जाने किसकी खोज में ?
पर न था कुछ भी सिवाय,
धुन्ध के साम्राज्य के,
भागती सी जिंदगी में,
लोरियों की चिल्ल-पों के,
किन्तु कुछ पल बाद मुझको,
कुछ दिखाई पड़ रहा था,
कोई दीन दुनिया की खबर से,
बेखबर हो बढ़ रहा था,
इक झलक देखा उसे,
मन चीत्कार कर उठा,
सन्न था सारा वजूद,
रोयां रोयां कह उठा,
या खुदा तेरी कयामत,
क्यों न आती आज ही ?
क्यों न करता भस्म पल में,
इस जगत को आज ही ?
वह बेचारी बावरी सी,
दीन अबला जान थी,
जीर्ण शीर्ण कृष काय,
उसकी, मानवी पहचान थी,
श्याम रंग, अस्थिर अवस्था,
वस्त्र विहीन गात था,
कौन है? क्या नाम उसका ?
पता तक न ज्ञात था,
ना कोई अपना था उसका ?
ना किसी की वह सगी ?
जाने कैसे हो गयी थी,
उसकी ऐसी जिन्दगी ?
पर प्रश्न केवल यह नहीं था,
बात थी उस वेदना की,
भौतिकी की भगदडी में,
मानवीय संवेदना की,
क्यों हुए इतना कुटिल हम ?
मिट गयीं क्यों भावनाएं ?
क्यों हमेशा हावी रहती,
हम पर अनैतिक कामनायें ?
क्यों नहीं बनते सहायक ?
हम किसी असहाय के ?
क्यों न आते काम हम,
किसी मानवीय निरुपाय के ?
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