आकाश और पृथ्वी
तुम आकाश हो
अनंत तक फैले
मगर
हृदय में शून्य समेटे।
यह पृथ्वी है
बहुत सीमित
मगर
मिट्टी से संस्कारित।
मैंने सुना है
लोग कहते हैं
क्षितिज पर
मही आकाश मिलते हैं।
किंतु
सत्य यह है
वे मिलते नहीं
मिलते प्रतीत होते हैं।
आकाश व्यथा से
व्यथित हो
वसुधा पर
अश्रु बरसाता है।
वसुधा उस थाती को
प्यार से आकुल हो
अपने ऑंचल में
समेट लेती है।
उसके स्नेहिल ऑंचल से
फूट पड़ते हैं
जीवनदायिनी दूर्वा के
मृदु-मृदु अंकुर।
धारा समर्पित कर देती है
उस अमर थाती को
अपने मुंह बोले बेटों को
अनमोल वसीयत! अनमोल त्याग!
-प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव
अलवर (राजस्थान)