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20 Jan 2024 · 1 min read

“राबता” ग़ज़ल

अब मुग़ालत मैं, पालता भी नहीं,
दर्द क्यूँ उसका, सालता भी नहीं।

बेगुनाही को, क्यूँ करें साबित,
यहां है कोई, पारसा भी नहीं।

हर सिमत धुन्ध है, कुहासा सा,
कोई उजला सा, रास्ता भी नहीं।

ऐसे मिलता है, मुझसे महफ़िल मेँ,
जैसे मुझको वो, जानता भी नहीं।

याद वादे की, दिलाऊँ कब तक,
बात मेरी वो, मानता भी नहीं।

फेर लेता है, निगाहें अपनी,
मुझसे ज्यूँ कोई, वास्ता भी नहीं।

बेख़ुदी कर गई, मजबूर मुझे,
वर्ना उससे मैं, हारता भी नहीं..!

इश्क़ सचमुच,अज़ीम है”आशा”,
दहर में ऐसा, राबता भी नहीं..!

##———##———##———##

Language: Hindi
6 Likes · 6 Comments · 89 Views
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