अहं
मुँह अंधेरे सवेरे किसी ने मुझे झिंझोड़कर जगाया,
उठकर देखा तो सामने एक साए को खड़ा पाया,
मैंने पूछा कौन हो तुम? तुमने मुझे क्यों जगाया?
उसने कहा मैं तुम्हारा अहं हूँ,
तुम्हारी कल्पना की नींद से मैंने ही तुम्हें जगाया,
मेरी खातिर तुमने अपने अच्छे रिश्तोंं को गवांया,
अपने अच्छे दोस्तों के नेक सुझावों को ठुकराया,
बड़े बूढ़ों की नसीहतों को नज़रअंदाज़ किया,
संस्कार और मूल्यों तक को दांव पर लगा दिया,
हमेशा खुद को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए कुतर्क का सहारा लिया,
दूसरों की प्रज्ञा को तिरस्कृत कर अपमानित किया,
यथार्थ के धरातल पर न रहकर तुम काल्पनिक उड़ान भरते रहे,
सच और झूठ, छद्म और यथार्थ, के अंतर को कभी समझ न सके,
तुम मतिभ्रम होकर, अपने ही द्वारा निर्मित तिमिर में भटकते रहे,
कभी स्वयं का जागृत संकल्प पथ प्रशस्त
न कर सके,
तुम्हें संज्ञान नहीं कि जिस पथ पर तुम हो,
वह तुम्हें अधोगति मे ले जाएगा,
दिग्भ्रमित उस पथ पर द्वेष, क्लेश एवं संताप के सिवा कुछ भी हासिल न होगा,
तुम्हारी अंतरात्मा की आवाज का मान रखकर,
मैं तुमसे अलग हो रहा हूँ,
तुम्हारी उन्नति के पथ पर बाधा न बनूँ,
इसलिए तुम्हें छोड़कर जा रहा हूँ।