असीम जिंदगी…
असीम जिंदगी…
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सम्भावनाएं असीम था जग में ,
क्षण में ही,वो सिमट सा गया है ।
औरों के गुनाहों की सजा को ,
किस क़दर वो क़बूल किया है ।
खौफनाक मंज़र आया था ,
वक़्त का सैलाब बनकर ।
ऐब जमाने का मत देखो ,
हाजिर हूँ मैं जिंदगी खोकर ।
फुर्सत के कुछ क्षण जो मिले थे ,
उसमें भी चैन कहाँ था ।
नजर लग गया हो,जब आसमाँ का ही,
तो ज़मीं पर चलना भी कठिन था।
जिंदगी की खोज में इधर को ,
आए थे मुसाफिर खुश होकर ।
ख्वाहिशें बेहिसाब सजी थी ,
मगर था जो साँसें गिनकर ।
पत्तों की औकात ही क्या है,
जो पेड़ से ही, जुबां वो लड़ाए ।
विवश था वो सब कुछ करने को ,
बेबस जिंदगी जो भी करवाए ।
असीम सुख की लालसा में ,
अनंत दूःख वो दे बैठा है।
स्वप्न ने जो ख्वाब बुना था ,
अंश अंश बिखर बैठा है ।
कैसे कहूँ , किससे कहूँ ,
दफन हुई अब, वो सब यादें ।
अब तो बस आसरा रब से ,
उनसे ही है, सब फरियादें ।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – २८ /१२ / २०२१
कृष्ण पक्ष , नवमी , मंगलवार
विक्रम संवत २०७८
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