अ’शोक :धनुषीपिरामिड
मैं
रहा
अशोक
पंचवटी का
एक सीधा वृक्ष
वायु वेग से झूमता
खुशियों संग संग घूमता
हरदम मैं सीधा खड़ा हुआ
भवनों की शोभा में अड़ा हुआ
हरी भरी पत्तियां नहीं सुखी हुयी
प्रतिपल सबके स्वागत में झुकी हुयी
आयोजनों की शोभा बढ़ाने तोड़ा जाता मैं
फिर बाँध बाँध करके मुख्य द्वार जोड़ा जाता मैं
आने जाने वाले सबको सबसे पहले मैं ही खुश करता
टूटी डालियों झुकी पत्तियों से मिलता यह संदेश
झुककर रहने वाले का मान होता देश विदेश
सीधा रहो पर झुकना भी बड़ा जरूरी है
भाई विटप तो बहुत हैं लोगों के पास
अशोक ही लगता क्या मजबूरी है
झुकना देखकर समाज ने भी
सम्मान बढ़ाया मेरा जग में
जहां लगूँ शोक हरूँ मैं
तभी लगूँ हर पग में
टूटूँ सेवा में ही मैं
सबकी हो जै
अ’शोक
रहा
मैं