अलमस्त रश्मियां
कदंब के किसलय से
नीरव-सी
झांकती,
अभिसारी
मंदार की
अलमस्त रश्मियां।
उसकी
कर्णप्रिय
पद-मंजीर
तृण-तृण में
मधुर
सरगम छेड़ती हैं।
एक अकथ
अनुराग की
साक्षी बनती हैं।
अपने झीने आंचल की ओट से
जलाशय के हृदय का
मादकीय संसर्ग
करती हुई
अकुलाती हैं,
इठलाती हैं,
लजाती हैं।
वारिद का
असामयिक आगमन
उसे विचलित करता है,
सताता है।
वह भयातुर सुकुमारी
आंचल छितराती
कूदती-फांदती
अविरल अंबर में
खरहा-सी
छिप जाती है।