अभिषापित प्रेम
मैं अभिषापित प्रेम के भाषा का गायक
मैं संयोजित व्यथा पंथ का इक नायक
मैं गाऊंगा करुण रूदन क्रंदन भंजन
अपमानित गुंजन दर्पण का अपवर्तन
रम्य विलासित यौवन तुम्हें बधाई हो
गुंँजित मन में स्नेहोँ की शहनाई हो
किंतु मुझको प्रेम का योगी रहने दो
विरह का धुंध कलंकित पावक सहने दो।
जब दिनकर का धवल पुँज प्रताड़ित हो।
तब नयनों में नीर बंँध रखना क्यों है?
जब मेघराज रोए ज्वलाएंँ अश्रु हों
तब शीत सत्र की बर्बरता से डरना क्यों है।
जब अंतश स्थूल हुआ है मौन अधर
जीते जी शव भांति जीवन करना क्यों है?
जहां अपेक्षित भाव सदा अपमानित हो
वहांँ स्नेह में स्वच्छ छंँद गढ़ना क्यों है?
क्यों है स्वच्छ भाव में सनेहिल संयोजन
क्यों है तुझे चाहकर चाह से क्रोधित मन
अंतर्मन फिर क्यूंँ ढूंँढेगा भाव विरल
तेज भरी आँखें फिर से क्यूँ होए तरल।
प्रश्नवाचकों से ऊपर उठ जाएँ गर…
मन हो जाए तेरे मन जैसा पत्थर।
इन प्रश्नों का उत्तर खोज रहा है मन
तन चंदन क्यों ढूंँढ रहा कल्पित घर्षण।
कितना आतुर हृदय हुआ तुम मत सोचो..
घात करो आघात करो घातक सोचो।
मेरा प्रेम है अपमानित मैं क्या बोलूंँ?
सम्मुख है कुदृश्य नयन कैसे खोलूँ?
हुई शुष्मिणा आहत फिर क्या विमाएँ?
तुमने तो बस छीन लिया है आशाएंँ
अब क्या है जो कहूंँ तुम्हें या गढ़ूंँ तुम्हें
तुमने छला है मुझको फिर क्यों पढ़ूंँ तुम्हें।
तुम भले दिवस के अधिनायक की रश्मि हो
किंतु स्नेहों के हित भीषण भस्मी हो।
मैं चातक हूंँ तृष्णा एक बूंद पानी
तुम इठलाओ कि मल्हार की हो रानी
तुम्हें लगा है तुम ही युग पर्वतक हो
तुम्हें लगा है तुम केवल आकर्षक हो।
तो अहंकार की सैय्या पर विश्राम करो….
तुम सफल हो गए मुझमें त्राहिमाम करो।
दीपक झा रुद्रा