अब तो जागो
कविता
शीर्षक – “अब तो जागो”
उमड़ घुमड़
घिर आते बादल
फिर धुंआधार बरसाते बादल
अन्तहीन करते जलवृष्टि
हाहाकार मचाते बादल
हुआ है चहुंदिश जलप्लावन
बाढ़ से ग्रसित हुआ जन जीवन
प्रकृति का सौंदर्य है वर्षा
जिससे सदा मानव मन हर्षा
किन्तु आज विपरीत दृश्य है
रूप भयावह मृत्यु सदृश्य है
यद्यपि प्राकृतिक विपदाएं आई हैं
हर युग और काल
किन्तु कभी भी ये ऐसी
होती न थी भीषण विकराल
पुरातन भारतीय संस्कृति हमारी
थे हम प्रकृति के कण-कण के पुजारी
किन्तु निज दुष्कर्मों की परिणति
दे रही हमें आज प्रकृति
असीमित उसका जो दोहन किया
सृजन नियन्ता का छिन्न-भिन्न किया
कुपित है सकल सृष्टि
हुई टेढ़ी अब उसकी दृष्टि
ओ निहित स्वार्थ संलिप्त मानव
सिद्ध हुआ तू प्रकृति के लिए दानव
अनभिज्ञ रहा क्यों परिणामों से
बचेगा न बुरे अंजामों से
प्राकृतिक विपदाएं व उनका प्रकोप
खुद के ही खंजर दिया तूने घोंप
नदियाँ रोकी और वन दिए उजाड़
नगर हैं प्रदूषित खत्म किए पहाड़
प्रदूषण ने
ब्रह्मांड में उष्णता बढ़ाई
छिड़ गयी यहीं से
मानव व प्रकृतिट की लड़ाई
समय रहते है संभलना मित्रों इस संसार की खातिर
खुद की खातिर या कहिए घर परिवार की खातिर।
है एक बड़ी चेतावनी
देती है कुछ पूर्वाभास
हो जा जागृत अब भी अन्यथा
जीने की मत रखना आस
तू जीने की मत रखना आस।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान)
मेरी स्वरचित व मौलिक रचना
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