“अब तुम नहीं याद आते हों”
अब तुम कम याद आते हो!
क्या तुम मुझे भूल पाते हो!!
तन्हाईं में वक्त,कहाँ बिताते हों!
होते जब जिद्दी,किसे सताते हो!!
कहाँ ढुँढते खुशियाँ,गम किसे बताते हों!
यूँ अकेले में, अपना किसे बनाते हो!!
जब महफ़िल रोयें,कोई तुम्हारे लिये!
तो किसे तुम, कैसे समझाते हो!!
और जाँचो-परखो अब खुद को!
आईना रोज़ किसे दिखाते हों!!
क्या नाप रहे हो गहराई “रेखा” की!
“काव्य जिंदगी “में कैद हो जाते हो!!
रेखा “कमलेश”
होशंगाबाद मप्र