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1 Jul 2021 · 6 min read

अपील

शाम का प्रहर था।अभी सूरज का अस्ताचल गमन हुआ ही था,उसके उपरांत भी उसकी लोहित आभा अभी गाँव की धरती पर सुर्ख-झीना चादर ओढ़ाए थी।

तभी यकायक गाय रंभाने लगी।हवेली में कृष्णाष्टमी की पूजा का धूम मचा था।अतएव व्यस्त होने के कारण गोपालक,माघव चौधरी, ने तत्काल कारण जानना उचित नहीं जाना और अनसुना कर कार्यरत रहे।

सुलेखा देवी कुर्सी पर बैठी-बैठी पुत्र को संबोधन करती बोलीं-“अरे माघव,जरा देख आ इस गैया को क्या हुआ?”

बिजली के बोर्ड से पिन जोड़ते हुए माघव बोला-“रहने भी दो…हमें कन्हैया की पड़ी है और तुम गैया गैया गैया…”

“पशु का अकारण इस प्रकार विलखना ठीक नहीं जान पड़ता।”

उसकी तरफ मुँह कर कड़कर-“इतनी ही चिंता है तो बथान देख क्यों नहीं आती!”

“मैं जोड़ो के दर्द से मरी जा रही हूँ।घूमना-टहलना तो दूर बस चल फिर लेती हूँ…ईश्वर की कृपा है।”- घुटने पकड़कर दीन भाव से बोली।

बिजली का बल्ब लगाते हुए- “ये कौन सी नई बात है!परिवार भर में कौन है जो इसका मारा न हो…बाबूजी,बिट्टू,मैं,उसकी माँ सब तो वैसे ही हैं।”

“सब भाग्य का दोष है और पूर्वजन्म के पाप का प्रयाश्चित।”

“यह प्रयाश्चित का घड़ा हम गरीबों के सर ही क्यों?ये अमीर तो दूध के धुले होंगे।”

“अगले जन्म में सभी अपने करम के फल पाएंगे।”

“ईश्वर को ऐसा बता रही हो,जैसे वो दर्जी है।इसका काटा उसमें जोड़ा।”

“न कसी का काटा न किसी में जोड़ा; सबको उसके दिए थान के मुताबिक कपड़े सिल दिए।”

हमेशा की भाँति व्यंग कर बोला-“तो थान काटकर दे आओ और निश्चिंत बैठो।जब अपने कामों से छुट्टी मिले तब वह सिले…वाह रे दर्जी..वो भी सौ-सौ साल बाद!”

“मैं हारी…तीज त्योहार के दिन भी बकझक किए बिना तुझे शांति कहाँ”-बुढ़िया मुँह फेरकर बोली “बिट्टू अरे बिट्टू…कहाँ गया?”

बिट्टू एक प्रखर-बुद्धि ,संवेदनशील,विचारशील,आज्ञाकारी और हँसमुख वय किशोर था।अभी एक एकांत घर में बैठकर गुबारे फुला रहा था।

दादी की आवाज सुनकर

“हाँ दादी…आया…पहुँचा…सामने हूँ”एक साँस में बोलता हुआ,भागा आया।

दादी ने डेवढ़ी की ओर इशारा कर कहा”बाहर गाय को देखकर आजा…और हाँ चलकर जाना!”

“अच्छा चलकर ही जाऊँगा”कहता हुआ वह डेवढ़ी की ओर चला गया।

” दस-पंद्रह मिनट बीत गए अभी तक पता नहीं है…लगता है दोस्तों के साथ सैर पर निकल गया होगा”कुर्सी के बल खड़े होते हुए बोली।

अब बिजली का काम समाप्त कर माघव बुढ़िया को कुर्सी पर बिठाते बोला “तू बैठी रह, मैं देखता हूँ।”

बाहर जाकर जब ढूंढा तो पाया कि बिट्टू बछड़े की रस्सी पकड़े उसे परोसी चिरंजीवी चौधरी के यहाँ से लिए आ रहा था।चिरंजीवी बाबू का गाँव के गिने चुने सख्सियत में सुमार था।वह जमींदारों के विरादरी के थे;उनके हिस्से के आज भी 60 बीघे बचे थे।

चौधरी साहब का परिवार भी चौधरियों-सा था।एक बेटी और जामाता रूस की राजधानी मॉस्को के आधिकारिक नागरिक हो गए थे!दूसरी बेटी की सगाई भी किसी रईस शाही घराने में हुई,दूल्हे के परदादे काशीराज के आनन फानन में से रिश्तेदार थे;यही कारण था कि चौधरी जी ने इस रिश्तेदारी को हामी भर दी थी क्योंकि उन्हें रौब और शोहरत की उत्कट इच्छा रहती।चौधरी साहब का छोटा लड़का इन दिनों विदेश में मैनेजमेंट कर,वहीं कहीं सेटल हो गया था।बची चौधराइन तो वह विधान मंडल की पूर्व सदस्या थी।

चौधरी जी ने अपने जीवन में नौकरी और भत्ते को पत्ते मात्र ही मानते आए क्योंकि जमींदारी की प्रथा टूट जाने पर भी वे जमींदारी ठाट में रहे।रैयत और बंटाईदार बोरिया भर-भर अनाज उनके गोदाम में उड़ेल जाते और ठेकेदार नर्म नोटों से उनकी जेबें भर जाते।

स्वाभावतः ठाठ,ऐंठ,रईसी और कुचल डालना उसके व्यक्तित्व के अभिन्न अंश बन चुके थे।

उनके आगे पीछे दरबारियों का कुंभ मेला लगा रहता।

चाटुकार की नीतियां भी निराले होते हैं,समक्ष में बड्डपन और परोक्ष में ऐ०के० 56!”

दरबारियों ने ऐसी अफवाहें उड़ा दी कि यदि वे इंद्रदेव का अभिनय करे और बारिश की जगह नोट बरसाने लगे तो मासभर नोटों की बर्षा होगी!

कोई कहता “धन देवी लक्ष्मी स्वयं अपना सारा कोष इनके देखरेख में छोड़ गईं।”

कोई अतृप्त चाकर कहता “चौधरी कसाई है कसाई!न कोई मान न धरम।गले रेतकर हवेली भर लिया है।”

बिट्टू की रूपरेखा से माघव को आभास हो गया कि कुछ अनहोनी घटी है!

वह झट लपककर बेटे से पूछा “क्या रे,रावण कुछ बोला भी?”

बिट्टू की आँखों में आँसू के बादल उमड़ते स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे थे,पर उन्हें वह रोष की आँधी से उसे ढकेले हुए था।वह बिल्कुल सन्न था।उसके मुख पर मौन के अलावा कोई शब्द न था और न ही मुख पर निश्चित हावभाव।

माघव अबकी झकझोर कर बिटटू से वही प्रश्न दोहराया।

जब उसकी दृष्टि बछड़े पर पड़ी तो देख कर सहम गया।न चीख निकली न ऊफ!

बछड़े के पीठ पर एक गहरा घाव लगा था, मानो किसी कसाई के हाथों फरसे खाकर भागा हो;रक्त स्त्राव से रोएँ गीले थे,हड्डियां बाहर आती जान पड़ती थी।

“कैसे हुआ…?”उसने साश्चर्य और खिन्न शब्द में पूछा

“उसने मारा…”

“किसने उसने?”

बिटटू चुपचाप बछड़े के व्रण और उसके असह्य पीड़ा के कारण भीगें नेत्रों को एकटक सदय देखता रहा।

“रावण ने?”माघव संकेत करते हुए बोला

“हाँ उसीने…बड़ी फजीहत की और बछड़े को पकड़कर उसकी मोहरी खोल ली और उसे बाँध दिया।”

“फिर तुमने मिन्नत की?”

“नहीं बछड़ा रस्सी तोड़ कर भाग निकला इसी पकड़ दौड़ में ट्रेलर के नीचे फँसाकर उसके पीठ छील लिए।”

“पापी!राक्षस!…”और कई प्रकार से कोसने के बाद मरहम पट्टियाँ करके माधव घर चला गया,लेकिन बिट्टू अब भी बछड़े के साथ गोशाल में ही था।

उसके हृदय में करुणा के सरोवर हिलकोरे मारता था।वह आज हृदय में प्रेमानुभूति से अधिक करुण द्रवित था।

वह बछड़े को बार बार पुचकारता लेकिन अन्य दिनों की तरह आज शायद बछड़े में फुर्ती न बची थी।वह बिट्टू का स्पर्श पाते ही मुँह फेरकर ठिठक जाता,मानो कह रहा हो हमें तुम इंशानों में शैतानी छवि दीखती है।

रात ढलने को आई,सारा वातावरण कृष्णमय हो रहा था।चारों ओर कीर्तन-गायन और वंदन के स्वर थे,किंतु वहाँ,उसके हृदय में समानुभूति और क्रंदन के।

कुछ प्रश्न आज उसे अधिक हैरान कर रहे थे,जिसके उत्तर सिर्फ दादी के पास थे।

दादी के पास गया और पूछा-

“दादी तुम यह नहीं मानती कि कुकर्मियों से कुल और जाति दूषित हो जाते हैं?”

“निस्संदेह,पर यदि लोग उन पापाचारी जन को आदर्शरूप मानने लगे,लेकिन ऐसा नहीं है।तभी तो आज भी सत्पात्र और धर्म परायण द्विजों की कमी नहीं और न ही सदय मानवों की;अपवाद तो सर्वत्र मिलते हैं।”

“दादी मैंने कई हिंदी,संस्कृत,अंग्रेजी,विज्ञान आदिक किताबें पढ़ी है।सबमें पाया कि मनुष्य श्रेष्ठ है क्योंकि उसमें तर्कशीलता,ज्ञान और वाणी है।उसमें सभ्यता और संस्कृति है।उसके हृदय में प्रेम और करुणा की दिव्यता है।उसके अंदर ईश्वरीय अंश हैं।फिर यह…”

दादी बिटटू की मनोव्यथा जान गई,कहने लगीं -“यदि दानवों के कुल में प्रह्लाद हो सकते हैं और ब्राह्मणों और मुनियों के कुल में रावण ,तो यह क्यों नहीं?”

“तो क्या रावण को राम ही मारते रहेंगे और रावण फिर-फिर जन्मता रहेगा?”

“नहीं ऐसे तिनकों के रावण को राम नहीं कालगति मारती है।कालगति टारत नाहिं टरे।”

“क्या तुम यह कहती हो कि हम ईश्वर के भरोसे चुप बैठें।क्या ईश्वर या कालगति इसे दंड देंगे?तो फिर महाभारत क्यों हुआ?और फिर न्यायालय का क्या प्रयोजन?”

“यही सत्य है और हम कर भी क्या सकते है?”

“पंचायत?”

“सारे उनके कौड़ियों पर पलते हैं।वाचाल,श्रीहीन,अज्ञानी और शोषितों की कोई नहीं सुनता।सभाओं में उनकी जीत पूर्वनिर्धारित रहती है।वे मुद्रों के बल मुर्दों से भी कहलवा देंगे !”

“तो हम कोर्ट में अपील करेंगे।”

“न्यायालय की सुनवाई में 30-30 वर्ष लग जाते हैं और फिर यह न्यायालय योग्य विषय भी तो नहीं।सुनवाई होते होते बछिया गाय बन जाएगी और उस गाय के कई बछड़े हो चूकेंगे”

“तो हम क्या करें दादी?”

“अपील और पढ़ाई…आज पालनकर्ता से मंगलकामना की अपील करेंगे और तुम करोगे पढाई ताकि भविष्य में किसी अनाधिकार क्रियाओं का प्रतिकार कर सको।सभाओं और न्यायालय के फलाफल जो कुछ हो,पर तुम्हारे तर्क को भी ध्यान और सम्मान दिया जाए।”

-सत्यम प्रकाश ‘ऋतुपर्ण’

—- इति श्री—

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