चेहरे के भाव
नजरों को बचा लो जख्मों को छिपा लो,
कब तक खुद को छिपाकर रख पाओगे,
चेहरा तो है पाँच पेज की खुली किताब,
किस किस को पढ़ने से रोक पाओगे..।
चाहे चढालो घूंघट सिर पर,
या फिर बुर्का डाल लो बदन पर,
कब तक झूठी मुस्कान बिखेरोगे,
जब भी आवाज़ निकलेगी स्वर से,
अपने दिल के छिपे राज ही खोलोगे..।
एक नहीं पांच पांच उड़ते पेजों को,
कब तक एक भाव में तौलोगे,
कभी कान कुछ सुन लेगा तो
आंखों की नमी को कैसे रोकेंगे.।
भले ही रंगमंच है यह जीवन,
कथाकार भले ही कोई और हुआ,
अभिनय तो तुमको ही करना है,
उस अभिनय को झूठ में कैसे खेलोगे.।
पुरुष्कार तुम्हारा हँसी को पाना,
नकल से कब तक उसको जीतोगे,
कभी तो असलियत होगी सामने ,
उसी वक्त अपनी नीयत की परतें खुद ही खोलोगे.।
प्रशांत सोलंकी,
नई दिल्ली-07