अनेक एक हो जाते हैं ! —–जितेन्द्र कमलआनंद ( ११३)
प्रिय आय्मन !
जब स्वयं का चोला ही रंग जाता है
उसके रंग में , तब —
अनिवार्यता नहीं रहती गैरिक वस्त्रों की
अथवा बाघम्बर की / माला जाप के मंत्रों की ,
वाह्य अस्त्र ,– शस्त्रों की , जब —
यह परब्रह्म मूर्ति , यह आनंदमूर्ति
अथवा प्रेममूर्ति
आनंद से / आनंद में / आनंद द्वारा
आनन्द के लिए / मन के दर से
मन के घर से
मन – मंदिर में प्रविष्ट हो जाती है
तब आवश्यकता नहीं रहती
मूर्ति अर्चना की …….. ( शेष फिर …)
— जितेन्द्रकमल आनंद