अनाथों सी खूंँटियांँ
तुमने सपनों में बुलाना छोड़ कर
अब कहीं जाने के लायक़ नहीं छोड़ा !
दूर जाते देख कर तुमको प्रिये
स्वप्न में भी भृकुटियांँ हिलती रहीं
फिर तुम्हारे दुपट्टे से हो अलग
अनाथों सी खूंँटियांँ हिलती रहीं
तुमने जुल्फों की घटाएँ छीन कर
अब बरस पाने के लायक़ नहीं छोड़ा
तुमने सपनों में बुलाना छोड़ कर
अब कहीं जाने के लायक़ नहीं छोड़ा !
टेरते रह गए चातक के अधर
किंतु कब नभ के धवल बादल रुके
आत्माएंँ मर रहीं हैं शोर से
पर कहांँ मन की कुटिल हलचल रुके
प्रेम की शाश्वत ध्वजा को झुका कर
कहीं लहराने के लायक़ नहीं छोड़ा
तुमने सपनों में बुलाना छोड़ कर
अब कहीं जाने के लायक़ नहीं छोड़ा !