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12 May 2024 · 1 min read

अनन्तता में यादों की हम बिखर गए हैं।

ये कालिमा कैसी है, जिसमें तारे भी विलीन हो गए हैं,
अँधेरा है ये अंतरिक्ष का या दीये मन के बुझ गए हैं।
इंद्रधनुष है ये कैसा, रंग जिसके मिट गए हैं,
रंगहीनता है ये आकाश की, या रौशनी आँखों से छीन गए हैं।
अम्बर है ये कैसा, विस्तृतता पर जिसके पहरे लग गए हैं,
संक्षिप्तता है ये नीलाम्बर की, या सपने खुद में सिमट गए हैं।
गहराई है ये कैसी, जिसमे सागर उथल गए हैं,
छिछलापन है ये समंदर का या, दर्द पलकों से टपक गए हैं।
ये खामोशी कैसी है, जिसमें शोर सारे हीं थम गए हैं,
शून्यता है ये ब्रह्माण्ड की, या निःशब्दिता से होंठ सील गए हैं।
ये मेले हैं कैसे, जिसमें एकाकी व्यक्तित्व भटक गए हैं,
आभाव है ये भीड़ का या, दलदल में तन्हाई के रूह धंस गए हैं।
ये खेल है कैसा, जिसमें पराजित से हो गए हैं,
बेवफाई है ये मोहरों की, ये भाव विजय के हमसे मुकर गए हैं।
ये भागमभाग है कैसी, जिसमें कदम ठहर गए हैं,
ठहराव है ये सफर का या, विरक्त शख्सियत से हम हो गए हैं।
ये विरह है कैसा, जिसमें चेहरे तक बादलों के हो गए हैं,
इंतज़ार है ये अनंत का या अनन्तता में यादों की हम बिखर गए हैं।

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