लक्ष्य विहीन राही
अनजानी सी राह पर
चलता रहा वह निरुद्देश्य।
न थी उसकी कोई मंजिल,
न था कोई लक्ष्य।
बस सामने थी एक अनंत राह,
जिसका न था कोई ओर न कोई छोर।
उसने किसी हमसफर से,
न की कभी कोई बात।
न पूँछी कुशलात,
बस चलता ही रहा।
पल भर को न किया ठहराव,
न ठिठका क्षण भर
किसी सघन वृक्ष की छाँव में-
करने को श्रम दूर।
लगता था उसको था
केवल चलते रहने का जूनून।
न किया कभी नैसर्गिकता का दर्शन न अवलोकन
वातावरण में पसरी सुषमा का।
उसने न कही अपनी,
न सुनी किसी की व्यथा कथा।
न द्रवित हुआ मन,
किसी की देख कर दुर्दशा।
अब वह अपने निरुद्देश्य भटकने से,
ऊब चूका था टूट चूका था।
वह थककर भरभराकर गिर पड़ा।
उसके प्राण पखेरू उड़ चले थे
अनन्त आकाश में-
किसी अनजानी मंजिल की ओर।
शायद यही उसकी नियति थी।
जयन्ती प्रसाद शर्मा