अदम गोंडवी
कविता को क्रान्ति और विद्रोह की मशाल बनाने वाले शख्स का नाम है- अदम गोंडवी। वे ऐसे कलमकार थे, जिसे अपनी रचनाओं और गाँव के अलावा यदि किसी से प्रेम था, तो वह थी-मदिरा। अदम के प्रशंसकों का एक बड़ा दायरा भी था, जो रुपये-पैसों से उनकी मदद करते थे। फटे कपड़े से तन ढँके हुए जहाँ से वो गुजरता था, वो पगडण्डी सीधे अदम के गाँव जाती थी। 22 अक्टूबर 1947 को स्वतंत्र भारत में जन्में अदम गोंडवी की आज यानी 18 दिसम्बर 2024 को तेरहवीं पुण्यतिथि है।
अदम गोंडवी निराले व्यक्तित्व के आसामी थे। वे जीवन भर उन तबकों की आवाज बने रहे, जिन्हें न तो दो वक्त की रोटी नसीब होती थी और न ही जिनके सर पर छत थी। वे बड़ी बेबाकी से न केवल सत्ता से सवाल करते रहे, वरन् अभिव्यक्ति के सारे खतरे भी उठाते रहे। मसलन :
देखना सुनना व सच कहना जिसे भाता नहीं,
कुर्सियों पर फिर वही बापू के बन्दर आ गए।
दुष्यन्त कुमार ने शायरी की जिस नीति की शुरुआत की थी, अदम ने उसे उस मुकाम तक पहुँचाने के अथक प्रयास किये, और काफी हद तक वे सफल भी रहे। एक नज़र :
जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में,
गॉंव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में।
अदम की ठेठ गँवाई अन्दाज में महानगरीय चकाचौंध को अंगूठा दिखाने वाली अदा सबसे जुदा और विलक्षण थी। बिना लाग-लपेट के आक्रामकता और तड़प से सने हुए व्यंग्य इसके साक्षी हैं। मसलन :
बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को,
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को।
मुशायरों की महफ़िल जब सजती थी तो अदम के माइक पर आते ही हवा के रुख और रंगीनियाँ दोनों ही बदल जाते थे। उनकी इन पंक्तियों पर जरा गौर फरमायें :
कहने को कह रहे हैं मुबारक हो नया साल,
खंजर भी आस्तीं में छुपाए हुए हैं लोग।
दर्द की जमीन पर तकलीफों के साये में पानी की जगह आँसू पीकर जीने वाले अदम गोंडवी साहब को शत शत नमन् करते हुए उनकी ही रचना की चन्द पंक्तियाँ श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत है :
(1)
किधर गए वो वायदे सुखों के ख़्वाब क्या हुए,
तुझे था जिसका इन्तजार वो जवाब क्या हुए?
(2)
कल जब मैं निकला दुनिया में
तिल भर ठौर देने मुझे मरघट भी तैयार न था।
आलेख
डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति
हरफनमौला साहित्य लेखन के लिए
लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड प्राप्त।