अटल पड़ाव
अटल पड़ाव
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जीवन का था नवीन सर्ग ।
घर में जैसे उत्सव-पर्व ।
नई हवाएं-नई फिजाएं ।
नई उमंग और आशाएं ।
नए चेहरों से मेल हुआ।
दिलों से दिल का भेद खुला।
हँसी-ठट्ठे और ठहाके ।
अच्छे गुजरे तीन दहाके।
विकसित हर्षित कुटुंब बना।
रूप उन्नत खिलता हुआ।
दिन में थी रौनकें खिलतीं ।
हंसी-खुशी शामें ढलतीं ।
अब उमंग विचारों में गुम।
चेहरे चिंता में गुम-सुम ।
मौसम बहुत बदल रहा ।
धीरे से दिन ढल रहा ।
आशाएं न लगती हर्षित।
परिवार का रूप संकुचित ।
यह जीवन का कैसा सर्ग ?
उत्कर्ष, विकास का उत्सर्ग !
जीवन का यह अटल पड़ाव ।
जमा-घटाव , उतार- चढ़ाव ।
।।मुक्ता शर्मा ।।