“अजीब दस्तूर”
“अजीब दस्तूर”
किस्मत सखी नहीं
फिर भी रूठ जाती है,
बुद्धि शरीर नहीं
फिर भी जंग लग जाती है।
सम्मान व्यक्ति नहीं
फिर भी आहत हो जाता है,
इंसान मौसम नहीं
फिर भी बदल जाता है।
“अजीब दस्तूर”
किस्मत सखी नहीं
फिर भी रूठ जाती है,
बुद्धि शरीर नहीं
फिर भी जंग लग जाती है।
सम्मान व्यक्ति नहीं
फिर भी आहत हो जाता है,
इंसान मौसम नहीं
फिर भी बदल जाता है।