अकेलापन
जगती के किसी भी मनुज को ,
ना भाता कभी तनहा रहना है ,
स्वजनों से दूरस्थ रहने पर ही ,
अकेलापन प्रतीति होता हमें।
आ पड़ती विवशता मनुज को ,
अकेलापन में हयात नसैनी का ,
कभी तनहा ना रहता मनुज ,
अपने सखावर को स्वजन गढ़ता।
हास्य हर्ष से वार्तालाप कर ,
अपना अकेलापन पृथक भगाता ,
वहाँ से मंजिल की ओर ,
कृत्य पंथ पर अग्रसर रहता है।
स्वजनों से दूरस्थ रहकर भी ,
छोटी – से – छोटी, बड़ी – से – बड़ी ,
मंजिल को लहते हैं हम ,
अनुशासन, व्यवहार उम्दा रखो ,
दूसरों की साहाय्य करो तो ,
भुवन के किसी भी आलय पर ,
कभी ना अकेलापन प्रतीति होगा
✍️✍️✍️उत्सव कुमार आर्या