अंदर की बारिश
मैंने बहुत इल्तिजा की,
अब तो बरस जा सावन।
भिगो दे मेरे तन को,
प्यासे, तड़पते मन को।
वह मेरी बात मान चुका था ,
दिल का हाल जान चुका था।
बहुत कहने के बाद,
उसने भरम रख लिया था।
मेरी बात मान ली उसने,
बरसने की ठान ली उसने।
बोला, अपनी मर्जी से बरसूंगा
फिर बरसने लगा था…
किसी की यादों का…
अकेलेपन का सावन।
फिर बरसने लगा सावन
भिगो दिया था मेरे तन को
तड़पते, प्यासे मन को
फर्क सिर्फ इतना था
वह बाहर के बजाय
अंदर बरस रहा था…।
© अरशद रसूल