अंतिम इच्छा
अंतिम इच्छा
“सुनिए जी, भले ही बाबू जी ने अंतिम इच्छा में अपनी तेरहवीं में जाति, समाज और ब्राह्मण भोज न करवाकर वृद्धाश्रम या अनाथालय में भोजन कराने के लिए कहा हो, पर क्या आपको ये सब कुछ अजीब-सा नहीं लग रहा है ? इस तरह से क्या बाबूजी की आत्मा को शांति मिलेगी ? और फिर लोग क्या सोचेंगे ?” किसी तरह से हिम्मत जुटाकर उमा ने अपने मन की बात कह दी।
“हूं, यदि तुम्हें ऐसा लग रहा है तो क्या बाबूजी की अंतिम इच्छा पूरी नहीं करने से उनकी आत्मा को शांति मिलेगी ?” पति ने कहा।
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“देखो उमा, हम लोग जीवनभर बाबूजी के बताए अनुसार ही चले हैं। आज हम जो कुछ भी हैं, मां और बाबूजी की बदौलत ही हैं। जब मां-बाबूजी को हमारे प्रेम-प्रसंग की बात पता चली, तो वे अपनी अमीरी और उच्च जाति का घमंड न करते हुए खुद तुम्हारे घर रिश्ता मांगने गए थे, क्योंकि उनकी नजर में हमारी जाति या आर्थिक स्थिति नहीं, बल्कि तुम्हारी योग्यता और हम दोनों की खुशी महत्वपूर्ण थी। सबके विरोध के बावजूद उन्होंने हमारे रिश्ते को दिल से स्वीकार किया और जीवन भर निभाया भी। तुम्हें याद होगा हमारी शादी की पार्टी और दोनों बच्चों का अन्न-प्राशन संस्कार भी वृद्धाश्रम और अनाथालय में ही संपन्न हुआ था। और फिर मां भी तो वही कह रही है, जो बाबूजी कह गए हैं।” रमेश ने बीती बातें याद दिलाईं।
रमेश की बातें सुनकर उमा के मन का कुहासा छंट हो गया।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़