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23 Oct 2022 · 1 min read

अंतर्द्वंद्व

अंतर्द्वंद्व
~~°~~°~~°
पीहर की यादों मे,जो खोई मैं आज,
नादान हंसी और वो चहकता अंदाज ।
जी रही थी भला जो अपनी मर्जी,
पीहर को क्यूँ ,कर दिया नजरअंदाज।
विचारों के अंतर्द्वंद्व में उलझा अब ये मन,
क्यों दुश्वर लगता है अब अन्तर्मन…

खुद को महफूज रक्खा था जिसकी छाँव तले,
अब वो लाचार आँखें,मन में उठ रहा अंतर्द्वंद्व।
राह अश्मर,अघोषित प्रेम के मायने कुछ अलग थे,
महक रही थी बाग में, मैं तो कलियों के संग।
गूंजती है अब भी वो लोरियाँ,जब सोचता है मन,
क्यों दुश्वर लगता है अब अन्तर्मन…

ह्रदय विदीर्ण होता है,सुनकर उनकी मजबूरियों को,
फितरत में तो लिखा है जुदा रहना उनसे जो।
सोचती हूँ बेटियों का विधान,पृथक क्यूँ है आत्मज से,
जन्मदाता को भला कैसे,भूला सकता है ये मन।
मिथ्या स्वप्नों के जंजाल में पड़ा है ये जीवन ,
क्यों दुश्वर लगता है अब अन्तर्मन…

मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि –२३ /१०/२०२२
कार्तिक,कृष्ण पक्ष ,त्रयोदशी, रविवार
विक्रम संवत २०७९
मोबाइल न. – 8757227201
ई-मेल – mk65ktr@gmail.com

Language: Hindi
6 Likes · 6 Comments · 526 Views
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