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20 Jan 2017 · 1 min read

ग़ज़ल

खिडकी से आती धूप दिवार पर इस कदर फैलती है
चारों तरफ़ हमारे रिश्ते की खुश्बू जैसे रोज़ फैलती है

चेहरे पे खुशियाँ लेकर आते जाते रहते हैं दोस्त बनकर
वोही चेहरों पे न जाने कितने चेहरे नज़र आने लगते हैं

हर दिन घर की चौखट पर पैर जमाएं खड़े हो जाते थे
दूर तलक देखता हूँ सरेआम वो पीठ ही नज़र आती है

अब किसी चेहरे से मेरा कोई वास्ता ही नहीं रहा अमुमन
प्यार के नाम मज़हब को जोडकर छुरियाँ घोंपता रहता है

– पंकज त्रिवेदी

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