मेरे भी थे कुछ ख्वाब
मेरे भी थे कुछ ख्वाब,न जाने कैसे टूट गये।
हाथ अभी थामा न था,मेरे। अपने रूठ गये ।
साथ सब थे महफ़िल में, जाने कैसी हवा चली
ओझल कब आंखों से हये,हाथ कैसे छूट गये ।
आंसू आंखों में जमने लगे,लब भी कुछ कह न सके
हैरान हूं मैं सोच कर ,कैसे पीये सब्र के घूंट गये।
किसके माथे मढू ये दोष,किसकी ग़लती बोलूं
सब रहा धरा का धरा,भाग थे अपने फूट गये ।
सुरिंदर कौर