मुस्कुराने का हुनर है क्या करूँ
करना भी लम्बा सफर है क्या करूँ
और पथरीली डगर है क्या करूँ
दोस्त भी गम ही अगर है क्या करूँ
मुस्कुराने का हुनर है क्या करूँ
द्वार दिल के बन्द होते ही नहीं
ख्वाहिशों का ये नगर है क्या करूँ
बुझ रहे हैं दीप संस्कारों के अब
ये हवाओं का असर है क्या करूँ
इश्क में रहने लगा बीमार दिल
हर दवा ही बे-असर है क्या करूँ
देखती तुमको रहूँ दिल चाहता
मिल के पर झुकती नज़र है क्या करूँ
बैठता अब छाह में कोई नहीं
सोचता बूढ़ा शज़र है क्या करूँ
बांधने भावों को शब्दों से चली
और मुश्किल भी बहर है क्या करूँ
‘अर्चना’ मासूमियत तो कम न थी
वक़्त ने तोड़ी कमर है क्या करूँ
09-04-2018
डॉ अर्चना गुप्ता