बे-ख़ुद
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वक्त की दहलीज़ पर ठहरा हुआ सा एक लम्हा,
हवा में लहराता हुआ सा एक बबूला,
संगे -ए- राह सा ठोकर खाता हुआ,
एहसास -ए- दर्द बना फ़ुगाँ होता हुआ ,
कुदरत के हाथों वो खिलौना सा बनता ,
भरम और हक़ीक़त के बीच डोलता सा रहता ,
हबाब की हस्ती लिए इक मख़लूक़ ,
हद से गुज़र फ़ना होने को मजबूर ,
सराब-ए-आप में खोया अपने आप का वो साया ,
कभी अपनी ख़ुदी को ना पहचान पाया।