बेटी- तीन कवितायें
(एक)
बेटी
सबसे कीमती होती है
अपने माँ-बाप के लिए
जब तक
वह घर में होती है
उसकी खिलखिलाहट
पूरे घर को सँवारती रहती हैं
लेकिन जैसे ही उसके पैर
चौखट के बाहर निकलते हैं
उसके आँसू
पूरे आँगन को नम कर जाती हैं
बेटी
कुछ और नहीं
माँ का कलेजा होती है
पिता के दिल की धड़कन
और भाई रगों में
बहता हुआ खून
वह घर से निकलते ही
पूरे परिवार को खोखला कर जाती है
(दो)
होते ही सुबह
बेटी बर्तन माँजने लगती है
जब माँ थक जाती है
बेटी पैर दबाने लगती है
मेहमान आते हैं
बेटी चाय पकाने लगती है
और जब बापू ड्यूटी पर जाते हैं
बेटी जूता और साइकिल साफ करने लगती है
इतवार आता है
बेटी कपड़े धुलने लगती है
जब जाड़ा आता है
बेटी स्वेटर बुनने लगती है
और जब त्यौहार आता है
बेटी तरह-तरह के पकवान बनाने लगती है
इस तरह
बेटी हमेशा करती रहती है
कुछ न कुछ
और देखते -देखते
बेटी माँ बन जाती है
माँ फिर पैदा करती है
बेटी को
हमेशा कुछ न कुछ करते रहने के लिए
(तीन)
बेटी हो जाती है परायी
शादी के बाद
अब वह बेटी नहीं
बहू होती है
– पराये घर की
जैसे धीरे-धीरे पीट कर सुनार
गढ़ता है जेवर
कुम्हार बनाता जैसे मिट्टी के बर्तन
वैसे ही माँ तैयार करती है बेटी को
बहू बनने के लिए
माँ सिखाती है
बेटी को
रसोई में बर्तनों को सहेज कर रखना
कि यह दुनिया
बर्तनों की खड़र-बड़र से अधिक बेसुरी
और तीखी होती है
माँ सिखाती है
बेटी को
जलते हुए तवे पर
नरम अँगुलियों को बचा कर
स्वादिष्ट रोटियां सेंकना
कि दुनिया लेती है नारी की अग्नि परीक्षा
और उसे आग से गुजरना है
माँ विदा करती है
बेटी को भीगे आँसुओं के साथ
कि बेटी होती है परायी
और उसे
बाबुल का घर छोड़कर
जाना ही पड़ता है
(एक नयी दुनिया बसाने के लिए)