बिस्तर की सिलवटों में
बिस्तर की सिलवटों में
बिस्तर की सिलवटों में
क्यों ढूंढते हो मुझे।
मेरा वजूद इससे अलग और भी है।
देह से परे,सोचो कभी मुझे
झांका करो कभी मेरे अंदर
जहां रुह मेरी बेलिबास रहती है
नग्न होकर घूमती हैं ख्वाहिशें
कोई पर्दा नहीं है वहां
सब कुछ नुमाया है।
ये जो अंधेरे में
बिस्तरों में सिलवटें
पड़ती तो
पर्दा कर के
बंद कमरों में
जबरन या मजबूरी में
तब टुटता तो जरूर कुछ है अंदर
घुट जाता है दम
असंख्य कामनाओं का
इन बिस्तर की सिलवटों पर।
मां की दवाई,
बहन की पढ़ाई।
भाई की फीस
पिता ना होने की टीस
सब छुप जाता है
बिस्तर की सिलवटों में।
तुम चाहो तो बदल सकती है
ये तस्वीर।
मेरी तकदीर
मत उठाओ फायदा
मेरी मजबूरी का।
जीने दो मुझे भी
सर उठा कर
थाम कर हाथ ,चलो साथ
क्या हमें है लेना
बिस्तर की सिलवटों से।
सुरिंदर कौर